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________________ ३, ३१८.] सम्मत्तमग्गणाए बंधसामित्तं [३८५ वंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-मणुसगइ-देवगइपाआग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-सुभग-सुस्सर-आदेज्जणिमिणुच्चागोद-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ धुवबंधदसणादो। सादासाद-हस्स-रदिअरदि-सोग-थिराथिर-सुहासुह-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमदंसणादो। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणाणं बादालीस पच्चया, ओरालियकायजोगाभावादो । देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुचीवेउब्वियसरीर-वेउब्वियसरीरअंगोवगाणं पि बादालीस पच्चया, वेउब्वियकायजोगाभावादो । अवसेसाणं तेदालीस पच्चया, पंचमिच्छत्ताणुबंधिचउक्कोरालिय-वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो । मणुसगइदुगोरालियदुग-वज्जरिसहसंघडणाणं बंधो मणुसगइसंजुत्तो । देवगइ-वेउब्वियदुगाणं देवगइसंजुत्तो । सेससव्वपयडीणं देवमणुसगइसंजुत्तो । मणुसगइदुगोरालियदुग-वज्जरिसहसंघडणाणं देव-णेरइया सामी । देवगइ-वेउब्वियदुगाणं तिरिक्ख-मणुसा सामी । सेसाणं पयडीणं बंधस्स सामी समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक व वैक्रियिक शरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगति व देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनका ध्रुवबन्ध देखा जाता है। साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी इनका बन्धविश्राम देखा जाता है। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिकशरीरांगो पांग और वज्रर्षभसंहननके व्यालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, औदारिककाययोगका अभाव है। देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगके भी ब्यालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, यहां वैक्रियिककाययोगका अभाव है। शेष प्रकृतियोंके तेतालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, पांच मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धिचतष्क, औदा गरिक. मिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका मिश्रगुणस्थानमें अभाव है। मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक और वज्रर्षभसंहननका बन्ध मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है। देवगतिद्विक और वैक्रियिकाद्वकका बन्ध देवगति संयुक्त होता है । शेष सब प्रकृतियोंका बन्ध देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त होता है। मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक व वज्रर्षभसंहननके देव व नारकी स्वामी हैं। देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके तिर्यंच व मनुष्य खामी हैं । शेष प्रकृतियोक बन्धके स्वामी चारों गतियोंके सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं । बन्धाध्वान ... ४९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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