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________________ ३, १५५. जोगमगणाए बंधसामित्तं [२२५ मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु' सांतर-णिरंतरो । कधं णिरंतरो ? ण, आणदादिदेवेसु णिरंतरबंधुवलंभादो । असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो। मिच्छाइट्ठिस्स तेदालीस पच्चया, ओघपच्चएसु चदुमण-वचि-कायजोगपच्चयाणमभावादो। सासणस्स सत्तत्तीसुत्तरपञ्चया, मिच्छाइट्ठिपच्चएसु पंचमिच्छत्त-णqसयवेदाणमभावादो। असंजदसम्मादिट्ठीसु तेत्तीस पच्चया, मिच्छाइट्ठिपच्चएसु पंचमिच्छत्ताणताणुबंधिचउक्किस्थिवेदाणमभावादो । सेसं सुगमं । मणुसगइ-मणुसाणुपुव्वी-उच्चागोदाणं मणुसगइसंजुत्तो, अवसेसाणं पयडीणं बंधो मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तो, असंजदसम्मादिट्ठीसु मणुसगइसंजुत्तो । मिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो देव-णेरइया सामी । सासणसम्मादिट्ठिणो देवा चेव सामी । प्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है। शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है । समाधान-नहीं, क्योंकि, आनतादिक देवों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। असंयतसम्यग्दृष्टियों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। मिथ्यादृष्टिके तेतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंमें यहां चार मनोयोग, चार वचनयोग और चार काययोगप्रत्ययोंका अभाव है। सासादनसम्यग्दृष्टिके सैंतीस उत्तर प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टिके प्रत्ययों से यहां पांच मिथ्यात्व और नपुंसकवेदका अभाव है। असंयतसम्यग्दृष्टियों में तेतीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टिके प्रत्ययों से यहां पांच मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और स्त्रीवेद प्रत्ययोंका अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपण सुगम है। __ मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका बन्ध मनुष्यगतिसे संयुक्त, तथा शेष प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त, और असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है । मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव व नारकी स्वामी हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि देव ही स्वामी हैं । बन्धा १ अप्रतौ — सासणसम्मादिट्ठीहि ' इति पाठः । ..बं. २९. Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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