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________________ १४] 'छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, ६. देसामासियसुत्तं तम्हा एत्थ लीणत्थाणं परूवणं कस्सामा । तं जहा - किं बंधो पुव्वं वोच्छिजदि, किमुदओ पुव्वं वोच्छिजदि, किं दो वि समं वोच्छिति, एदासिं तिष्णं पुच्छाणं बुत्तरो बुच्चदे । एदासिं सोलसण्णं पयडीणं बंधो पुव्वं वोच्छिजदि सुहुमसांपराइयचरिमसमए, उदओ पच्छा वोच्छिज्जदि; पंचणाणावरणीय चउदंसणावरणीय पंचतराइयाणं खीणकसायचरिमसमए, जसकित्ति उच्चागोदाणमजोगिचरिमसमए उदयवोच्छेददंसणादो । किं सोदण, किं परोदरण, किं सोदयपरोदएण एदासिं बंधो त्ति पुच्छमस्सिदूण वुच्चदे । एत्थ ताव देण संबंषेण सोदएण परोदएण सोदय-परोदएण बज्झमाणपयडिपरूवणं कस्सामा । तं जहा- णिरयाउदेवाउ-णिरयगइ-देवगइ-वे उव्वियसरीर- आहारसरीर- वेडव्विय-आहारसरीरंगोवंग- णिरयगइ-देवगइपाओग्गाणुपुव्वि-तित्थयरमिदि एदाओ एक्कारसपयडीओ परोदएण बज्झंति ( एत्थ उवसंहारगाहा - तित्थयर - णिरय- देवाउअ उव्वियछक्क दो वि आहारा । एक्कारसपयडीणं बंधो हु परोदत्तो ॥ ११ ॥ ) पंचणाणावरणीय - [ चउदसणावरणीय - ] मिच्छत्त-तेजा - कम्मइ यसरीर-वण्णच उक्कं अगुरुअलहुअ-थिराथिर-सुहासुह- णिमिण-पंचंतराइयमिदि एदाओ सत्तवीसपयडीओ सोदएण सूत्र है और देशामर्शक होनेसे यहां लीन अर्थात् अन्तर्निहित अर्थोंकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- क्या बन्ध पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, क्या उदय पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, या क्या दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं ? इन तीन प्रश्नों का उत्तर कहते हैं- इन सोलह प्रकृतियोंका बन्ध उदयव्युच्छित्तिसे पहिले सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें व्युच्छिन्न होता है, तत्पश्चात् उदयकी व्युच्छित्ति होती है; क्योंकि पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय, इन चौदह प्रकृतियोंका क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें, तथा यशकीर्ति व उच्चगोत्र इन दो प्रकृतियों का अयोगिकेवली के अन्तिम लययमें उदयव्युच्छेद देखा जाता है । ' क्या वोदयसे, क्या परोदयसे, या क्या स्वोदयपरोदयसे इनका बन्ध होता है ?' इस प्रश्नका आश्रयकर उत्तर कहते हैं । अब यहां पहिले इस सम्बन्धसे स्वोदय, परोदय और स्वोदय-परोदय से बंधनेवाली प्रकृतियों का निरूपण करते हैं। वह इस प्रकार है- नारकायु, देवायु, नरकगति, देवगति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, आहारकशरीरांगोपांग, नरकगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थकर, ये ग्यारह प्रकृतियां परोदयसे बंधती हैं। यहां उपसंहारगाथा - तीर्थकर, नारकायु, देवायु, वैक्रियिकशरीरादि छह और दोनों आहारक, इन ग्यारह प्रकृतियोंका बन्ध परोदयसे कहा गया है ॥ ११ ॥ पांच ज्ञानावरणीय, [ चार दर्शनावरणीय ], मिथ्यात्व, तैजस और कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुकलघुक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तराय, ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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