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________________ ३, ३२५.] आहारमागणाए बंधसामित सामी, णिरयगईए अभावादो । बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-सुहम-अपज्जत्त-साहारणाण तिरिक्ख-मणुसा सामी, देवणेरइएसु एदासिं बंधाभावादो। बंधद्धाणं पत्थि, एक्कम्हि अद्धाणविरोहादो । बंधवोच्छेदट्ठाणं सुगमं । मिच्छत्तबंधो चउब्विहो । सेसाणं सादि-अडवो । सादावेदणीयस्स अणाहारीसु बंधवोच्छेदो चेव, उदयवोच्छेदाभावादो। सव्वत्थ बंधो सोदय-परोदओ । मिच्छाइटि-सासणसम्मादिहि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सांतरो, पडिवक्सपयडिबंधुवलंभादो। सजोगिम्हि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। पच्चया सुगमा । णवरि सजोगिम्हि कम्मइयकायजोगपच्चओ एक्को चेव, अण्णेसिमसंभवादो । मिच्छाइटिसासणसम्मादिट्ठीसु लिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तो। असंजदसम्मादिट्ठीसु देव-मणुसगइसंजुत्तो । सजोगीसु अगइसंजुत्तो । चउगइमिच्छाइटि-सासणसम्मादिहि-असंजदसम्मादिहिणो मणुसगइ. केवलिणो च सामी । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । सादि-अदुवो बंधो, साभावियादो। देवगइ-वेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुवी-तित्थयरणामाण गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगतिमें इनके बन्धका अभाव है। हीन्द्रिय, जीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके तिर्यंच और मनुष्य स्वामी हैं, क्योंकि, देव व नारकियोंमें इनके बन्धका अभाव है। बन्धाभ्यान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें अध्वानका विरोध है। वन्धव्युच्छेदस्थान सुगम है। मिथ्यात्वका बन्ध चारों प्रकारका होता है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अधुव बन्ध होता है। सातावेदनीयका अनाहारी जीवों में केवल बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, वहां उसके उदयव्युच्छेदका अभाव है। सर्वत्र उसका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। मिथ्याटि, सासादनसम्यग्हाष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें साम्तर बम्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिका बन्ध पाया जाता है । सयोगकेवली गुणस्थानमें उसका निरन्तरबन्ध होता है,क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं। विशेष इतना कि सयोगकेवली गुणस्थानमें केवल एक कार्मण काययोग प्रत्यय ही है, क्योंकि, अन्य प्रत्ययोंकी वहां सम्भावना नहीं है। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। असंयतसम्यग्दृष्टियों में देवगति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। सयोगकेवली जीवोंमें गतिसंयोगसे रहित बन्ध होता है। चारों गतियोंके मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, तथा मनुष्यगतिके केवली स्वामी हैं। बन्धाभ्वान और बन्धन्युग्छिन्चस्थान सुगम हैं। सादि व अचव बन्ध होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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