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________________ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २४६. देव-णेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खबंधादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहितो विसेसाभावादो । पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीयअसादावेदणीय-बारसकसाय-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-अथिर-असुहअजसकित्ति-णिमिण-पंचतराइयाणं मिच्छाइटिम्हि चउगइसंजुत्तो । सासणे णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु देव-मणुसगइसंजुत्तो । सादावेदणीयपुरिसवेद-हस्स-रदि-समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर- आदेज्ज-जसकित्तीणं मिच्छादिट्टि-सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो तिगइसंजुत्तो, णिरयगईए अभावादो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु दुगइसंजुत्तो, णिरय-तिरिक्खगईणमभावादो । ओरालियसरीर ओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणाणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तो। सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु मणुसगइसंजुत्तो । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं मणुसगइसंजुत्तो । देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवीणं देवगइसंजुत्तो । ........................... निरन्तर बन्ध पाया जाता है। ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां वह प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धसे रहित है। प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे यहां कोई विशेषता नहीं है। पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, असाता वेदनीय, वारह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचे. न्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, अयशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तरणयका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों गतियोंसे संयुक्त, सासादन गुणस्थानमें नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त, तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत. सम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त होता है । सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशकीर्तिका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में तीन गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, इनके साथ नरकगगतिके वन्धका अभाव है। सम्याग्मिथ्यावृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नरकगति और तिर्यग्गतिका अभाव है । औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और घज्रर्षभसंहननका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यदृष्टि गुणस्थानोंमें तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें उनका बन्ध मनुष्यगतिले संयुक्त होता है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । देवगति और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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