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________________ ३, २४६.) संजममग्गणाए बंधसामित्तं [ ३१५ गइपाओग्गाणुपुवीणं मिच्छादिट्टि-सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो सांतर-णिरंतरो । क, णिरंतरो ? ण, आणदादिदेवेसुणिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खबंधादो। ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठीसु सासणसम्मादिट्ठीसु च सांतर-णिरंतरो बंधो । कवं णिरंतरो ? ण, देव-णेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो। उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खबंधादो। वज्जरिसहसंघडणस्स मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो । उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खबंधादो। पसत्थविहायगइ सुभग-सुस्सरादेज्जुच्चागोदाणं मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरणिरंतरो, असंखेज्जवासाउएसु णिरतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खबधादो । पंचिंदियजादि-परघादुस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं बंधो मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंतरो, अभाव है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्याहाष्ट और सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है। शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि आनतादिक देवोंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां वह प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धले रहित है। औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका मिथ्यादृष्टियों और सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है । शंका-इनका निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि देव और नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वह प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धसे रहित है। वज्रर्षभसंहननका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें सान्तर बन्ध होता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वह प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धसे रहित है। प्रास्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि और सासादजर र. ग्दृष्टियों में सान्तर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, असंख्यातवर्षायुष्कोंमें उनका निरन्तर वध पाया जाता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वह प्रतिपक्ष प्रकृतियों के से रहित है। पंचेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरी का बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि, देव व नारकियों में इनका १ प्रतिषु · देवीसु' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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