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३१४] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २४६. परोदओ । सम्मामिच्छाइट्ठिम्हि सोदओ चेव, अपज्जत्तद्धाए तस्साभावादो।
पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछा-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णचउक्क-अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । सादासादहस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुहासुह-जसकित्ति-अजसकित्तीण बंधो सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमुवलंभादो । देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवी-वेउव्वियसरीर वेउवियसरीरअंगोवंग-समचउरससंठाणाणं बंधो मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतर-णिरंतरो । कधं णिरंतरो? ण, असंखेजवासाउ अतिरिक्ख-मणुसमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सुहतिलेस्सियसंखेज्जवासाउएसु च जिरंतरमधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । पुरिसवेदस्स मिच्छादिदि सासण सम्मादिट्ठीसु सांतर-णिरंतरो। कथं णिरंतरो ? पम्म-सुक्कलेस्सियतिरिक्ख-मणुस्सेसु पुरि सरदस्सेव बंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। मणुसगइ-मणुस
बन्ध होता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें उनका स्वोदय ही वन्ध होता है, क्योंकि, अपयांचएकालमें उस गुणस्थानका अभाव है।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका बन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका बन्धविश्राम पाया जाता है । देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और समचतुरस्रसंस्थानका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर-निरन्तर होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें तथा शुभ तीन लेश्यावाले संख्यातवर्षायुष्कोंमें भी उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंक, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। पुरुषवेदका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-क्योंकि, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले तिर्यंच एवं मनुष्यों में पुरुषवेदका ही बन्ध पाया जाता है।
ऊपर उसका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका
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