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________________ ३, २४९.) संजममग्गणाए घंधसामित्तं [३१७ वेउव्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठीसु दुगइसंजुत्तो, तिरिक्ख-मणुसगईणमभावादो । सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु देवगइसंजुत्तो । उच्चागोदस्स देव-मणुसगइसंजुत्तो, अण्णत्थ तस्सुदयाभावादो। चउगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठी सामी । वंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि, 'अबंधा णत्थि' त्ति वयणादा। धुवबंधीणं मिच्छाइट्ठीसु चउबिहो बंधो। सासणादीसु तिविहो, धुवबंधाभावादो । अबसेसाणं सादि-अद्धवो, अद्भुवबंधित्तादो । बेट्टाणी ओघं ॥ २४७॥ बेट्ठाणपयडीणं जधा मूलोघम्मि परूवणा कदा तथा कायव्वा, विसेसाभाषादो । एक्कट्ठाणी ओघं ॥ २४८ ॥ सुगममेदं । मणुस्साउ-देवाउआणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २४९ ॥ देवगतिसे संयुक्त होता है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका बन्ध मिथ्यादृष्टियोंमें दो गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, उनके साथ तिर्यग्गति और मनुष्यगतिके बन्धका अभाव है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें देवगतिसे संयुक्त उनका बन्ध होता है । उच्चगोत्रका बन्ध देवगति और मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है, क्योंकि, अन्य गतियों में उसके उदयका अभाव है। चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, 'अबन्धक नहीं हैं' ऐसा सूत्रमें कहा गया है। ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टियों में चारों प्रकारका होता है । सासादनादिकोंमें तीन प्रकारका वन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं । द्विस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २४७ ॥ द्विस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा जैसे मूलोधमें की गई है उसी प्रकार करना चाहिये, क्योंकि, मूलोघसे यहां कोई विशेषता नहीं है। एकस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २४८ ॥ यह सूत्र सुगम है। मनुष्यायु और देवायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २४९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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