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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ मिच्छत्त-अणंताणुबंधिचउक्क-अपच्चक्खाणावरणचउक्क-पच्चक्खाणावरणचउक्क-तिण्णिसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियजादि-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्वि-आदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं एकत्तीसपयडीणं बंधोदया समं वोच्छिजंति । एत्थ उवसंहारगाहाओ
मिच्छत्त-भय-दुगुंछा-हस्स-रई-पुरिस-थावरादावा । सुहुमं जाइचउक्कं साहारणयं अपज्जत्तं ।। ८ ।। पण्णरस कसाया विणु लोहेणक्केण आणुपुत्री य ।
मणुसाणं एदासिं समगं बंधोदवुच्छेदो ॥ ९॥) पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-दोवेयणीय-लोहसंजलण-इत्थि-णqसयवेद-अरइ-सोगणिरयाउ-तिरिक्खाउ-मणुस्साउ-णिरयगइ-तिरिक्खगइ-मणुस्सगइ-पंचिंदियजाइ-ओरालिय-तेजाकम्मइयसरीर छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंडघण-वण्णच उक्क-णिरयगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वि-अगुरुअलहुअचउक्क-उज्जोव-दोविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-दुभग सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज जसगित्ति-णिमिण-तित्थयर-णीचुच्चगोद-पंचं
मिथ्यात्व, चार अनन्तानुबन्धी, चार अप्रत्याख्यानावरण, चार प्रत्याख्यानावरण, तीन संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इन इकतीस प्रकृतियोंका बन्ध व उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं। यहां उपसंहारगाथायें
मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, हास्य, रति, पुरुषवेद, स्थावर, आताप, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, साधारण, अपर्याप्त, संज्वलनलोभके विना पन्द्रह कषाय और मनुष्यगत्यानुपूर्वी, इन प्रकृतियोंका बन्धव्युच्छेद और उदयव्युच्छेद साथ ही होता है ॥८-९॥
पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, दो वेदनीय, संज्वलनलोभ, स्त्रीवेद,नपुंसकवेद, अरति, शोक, नारकायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु, नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, वर्णादिक चार, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदिक चार, उद्योत,दो विहायोगति, त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, नीचगोत्र, उच्चगोत्र
१ अप्रतौ — दुगुंठाणमेगिंदिय-' इति पाठः ।
२ मिच्छत्तादावाणं णराणु-थावरचउक्काणं । पण्णरकसाय-भयदुग-हस्सदु-चउजाइ-पुरिसवेदाणं । सममेक्कत्तीसाणं से सिगसीदाण पुवं तु । गो. क. ४००-४०१.
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