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________________ पयडीणं बंधोदयवोच्छेदस्स पुव्वावरत्तं वोच्छेदो' । दोवेदणीय-मणुस्साउ-मणुस्सगइ-मंचिंदियजादि-तस-बादर-पज्जत्त-सुभग-आदेज्जजसगित्ति-तित्थयर-उच्चागोदाणं तेरसण्हं पयडीणमजोगिकेवलिम्हि उदयवोच्छेदो' (एत्थ उवसंहारगाहा दस चदुरिगि सत्तारस अट्ठ य तह पंच चेव चउरो य । छच्छक्क एग दुग दुग चोइस उगुतीस तेरसुदयविही ॥ ६ ॥ एवमुदयवोच्छेदं परूविय कासि पयडीणं बंधो उदए फिट्टे वि होदि, कासिं पयडीणं बंधे फिट्टे वि उदओ होदि, कासिं बंधोदया समं वोच्छिज्जति त्ति वुच्चदे । तं जहादेवाउ-देवगइ-वेउव्वियसरीर-वेउव्वियअंगोवंग देवगइपाओग्गाणुपुन्वि-आहारदुग-अजसकित्तीणमट्टण्णं पयडीणं पढममुदओ वोच्छिज्जदि पच्छा बंधो (एत्थ उवसंहारगाहा देवाउ-देवचउक्काहारदुंअं च अजसमट्ठण्हं । पढममुदओ विणस्सदि पच्छा बंधो मुणयेव्यो ॥ ७ ॥) मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, तीर्थकर और उञ्चगोत्र, इन तेरह प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद अयोगिकेवली गुणस्थानमें होता है। यहां उपसंहारगाथा दश, चार, एक, सत्तरह, आठ, पांच, चार, छह, छह, एक, दो, दो, चौदह, उनतीस और तेरह, (इस प्रकार क्रमशः मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानोंमें उदयव्युच्छिन्न प्रकृतियों की संख्या है)॥६॥ ___ इस प्रकार उदयव्युच्छेदको कहकर अब किन प्रकृतियोंका बन्ध उदयके नष्ट होनेपर भी होता है, किन प्रकृतियोंका उदय बन्धके नष्ट होनेपर भी होता है, और किन प्रकृतियोंका बन्ध व उदय दोनों साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं, इस बातको कहते हैं। वह इस प्रकार है-देवायु, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकआंगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आहारकशरीर, आहारकआंगोपांग और अयशकीर्ति, इन आठ प्रकृतियोंका प्रथम उदयका विच्छेद होता है, पश्चात् बन्धका । यहां उपसंहारगाथा देवायु, देवचतुष्क अर्थात् देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकप्रांगोपांग, तथा आहारकशरीर, महारक आंगोपांग एवं अयशकीर्ति, इन आठ प्रकृतियोंका पहिले उदय नष्ट होता है, पश्चात् बन्ध, ऐसा जानना चाहिये ॥ ७॥ १तदियेक्कवज्ज-णिमिणं थिर-सुह-सर-गदि-उराल-तेजदुगं । संठाणं वण्णागुरुचउक्क-पत्तेय जोगिम्हि ।। गो. क. २७१. २ तदियेकं मणुवगदी पंचिंदिय-सुभग-तस-तिगादेज । जस-तित्थं मणुवाऊ उच्चं च अजोगिचरिमम्हि॥ गो. क. २७२. ३ गो. क. २६३. ४ देवचउक्काहारदुगज्जसदेवाउगाण सो पच्छा । गो. क. ४०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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