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१०] छक्खंडागमे बंधसामित्तयिचओ
[३, ५. पमत्तसंजदम्मि उदयवोच्छेदो । अद्धणारायण-खीलिय-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडण-वेदगसम्मत्ताणं चदुण्हं पयडीणं अप्पमत्तसंजदम्मि उदयवोच्छेदो । हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं छण्णं पयडीणमपुव्वकरणम्मि उदयवोच्छेदो । इत्थि-णqसय-पुरिसवेद-कोह-माण-मायासंजलणाणं छण्णं पयडीणमणियट्टिम्हि उदयवोच्छेदो । लोभसंजलणस्स एक्कस्स चेव सुहुमसांपराइयचरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदो । वज्जणारायण-णारायणसरीरसंघडणाणं दोण्णं पयडीणं उवसंतकसायम्मि उदयवोच्छेदो । णिद्दा-पयलाणं दोण्हं पि खीणकसायदुचरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदो । पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं चोदसणं पयडीणं खीणकसायचरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदो । ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वजरिसहवइरणारायणसरीरसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघादुस्सास-दोविहायगदिपत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुस्सर-दुस्सर-णिमिणाणमेगुणतीसपयडीणं सजोगिकेवलिम्हि उदय
गुणस्थानमें होता है । अर्धनाराच, कीलित, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन और वेदकसम्यक्त्व इन चार प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें होता है। हास्य, रति, अरति. शोक, भय और जुगुप्सा, इन छह प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद अपूर्वकरण गुणस्थानमें होता है। स्त्री, नपुंसक और पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान और माया, इन छह प्रकृतियोंका उदग्रव्युच्छेद अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें होता है। केवल एक संज्वलन लोभका उदयव्युच्छेद सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें होता है। वज्रनाराच और नाराच शरीरसंहनन, इन दो प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद उपशान्तकषाय गुणस्थानमें होता है। निद्रा और प्रचला दोनों प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद क्षीणकषाय गुणस्थानके द्विचरम समयमें होता है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय, इन चौदह प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें होता है। औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन. वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुकलघुक, उपघात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगतियां,प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुस्वर और निर्माण, इन उनतीस प्रक्रतियोंका उदयव्युच्छेद सयोगिकेवली गुणस्थानमें होता है। दो वेदनीय, मनुष्यायु,
१ देसे तदियकसाया तिरियाउज्जोव-णीच-तिरियगदी । छठे आहारदुर्ग थीणतियं उदयवोच्छिण्णा ॥ गो. क. २६७.
२ अपमत्ते सम्मत्तं अंतिमतियसंहदी यऽपुवम्हि । छच्चेव णोकसाया अणियट्टीभागभागेसु ॥ वेदतिय कोह-माणं मायासंजलणमेव सहुमंते । सहुमो लोहो संते वज्जणाराय-णारायं ॥ गो. क. २६८-२६९
३ खीणकसायदुचरिमे णिद्दा पयला य उदयवोच्छिण्णा | णाणंतरायदसयं दंसणचत्तारि चरिमम्हि ॥ गो. क. २७०.
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