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छक्खंडागमे बंधसांमित्तविचओ
[ ३, १६०.
धुवबंधित्तादो । असादावेदणीय-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर - सुहासुह- जसर्कित्ति अजस कित्तीर्ण सांत बंधो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो | पुरिसवेद - समचउरससंठाण - वज्जरिसहसंघडणपसत्थविहाय गइ - सुस्सर-सुभगादेज्ज - उच्चागादाणं मिच्छाइट्टि सासणेसु सांतरा बंधो । असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडीण बंधाभावाद । [ मणुसगइ - ] मणुसगइपाओग्गाणुपुत्रीणं मिच्छाइट्टि सासणेसु बंधो सांतर - णिरंतरी । कथं णिरंतरो ? ण, आणदादिदेवेहिंतो विग्गहगदीए मणुसे सुप्पण्णाणं मणुसगइदुगस्स निरंतर बंधुवलंभादो | असंजदसम्मादिसु णिरंतरो बंधो, विग्गहगदीए मणुवदुगबंधपाओग्गसम्मादिट्टीणमण्णगइ दुगस्स बंधाभावादो । पंचिंदिय-ओरालियसरीर अंगोवंग-तस - बादर-पज्जत्त-परधादुस्सास-पत्तेयसरीराणं बंधो मच्छड्डीसु सांतर-णिरंतरो । कथं णिरंतरो ? ण, सणक्कुमारादिदेव - णेरइएहिंतो तिरिक्ख-मणुस्से सुप्पण्णाणं
अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं । असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका साम्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है । पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुस्वर, सुभग, आदेय ओर उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तर बन्ध होता है । असंयतसम्यग्दृष्टियौमें निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । [ मनुष्यगति ] और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर - निरन्तर बन्ध होता है ।
शंका — निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, आनतादिक देवोंमेंसे मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवोंके विग्रहगति में मनुष्यगतिद्विकका निरन्तर बन्ध पाया जाता है ।
असंयतसम्यग्दृष्टियों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगति में मनुष्यद्विकके बन्धके योग्य सम्यग्दृष्टियोंके अन्य दो गतियोंके वन्धका अभाव है। पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीरांगोपांग, बस, बादर, पर्याप्त, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका बन्ध मिथ्यादृष्टियोंमें सान्तर - निरन्तर होता है ।
शंका - निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, सनत्कुमारादि देव व नारकियोंमेंसे तिर्यों व
१ प्रतिषु ' मणुसे सुचवण्णाणं ' इति पाठः ।
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