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________________ ३, १६०.] जोगमग्गणाए बंधसामित्तं [ २३३ पत्तेयसरीर-सुस्सराणमेयंतेण उदयाभावादो, सेसाणमुदयसंभवादो च । पंचणाणावरणीयचउदंसणावरणीय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णचउक्क-अगुरुवलहुअ-थिराथिर-सुहासुह-णिमिणपंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, एत्थतणसव्वगुणट्ठाणेसु णियमेणुदयदंसणादो । णिद्दा-पयलाअसादावेदणीय-बारसकसाय-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-पुरिसवेद-सुभगादेज्ज-जसकित्तिउच्चागोदाणं सोदय-परोदओ बंधो । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बीणं मिच्छाइट्ठिसासणसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ बंधो, उभयथा वि बंधविरोहाभावादो। असंजदसम्मादिट्ठीसु परोदओ, मणुस्सअसंजदसम्मादिट्ठीणं मणुवदुगस्स बंधविरोहादो । पंचिंदिय-तस-बादर-पज्जत्ताणं मिच्छाइट्टिम्हि सोदय-परोदओ बंधो, पडिवक्खुदयसंभवादो। सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदओ, विगलिंदिएसु एदेसिं दोणं गुणट्ठाणाणं अभावादो । ओरालियसरीरसमचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-सुस्सराणं परोदओ बंधो, विग्गहगदीए एदासिमुदयाभावादो। पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुछा-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-उवघाद-णिमिण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येकशरीर और सुस्वरका नियमसे उदयाभाव है, तथा शेष प्रकृतियोंके उदयकी सम्भावना है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां सब गुणस्थानोंमें इनका नियमसे उदय देखा जाता है । निद्रा, प्रचला, असातावेदनीय, बारह कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, सुभग, आदेय, यशकीर्ति और उच्चगोत्रका, स्वोदय परोदय बन्ध होता है। मनुष्यगति व मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे ही बन्ध होनेमें कोई विरोध नहीं है। असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंके मनुष्यद्विकके बन्धका विरोध है । पंचेन्दियजाति, त्रस, बादर और पर्याप्तका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका उदय सम्भव है। सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्हाष्टियोंमें स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, विकलेंद्रियों में इन दोनों गुणस्थानोंका अभाव है। औदारिकशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येकशरीर और सुस्वरका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें इनके उदयका अभाव है। __ पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच छ. बं. ३०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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