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________________ [२३५ ३, १६०.] जोगमगणाए बंधसामित्तं णिरंतरबंधुवलंभादो। सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, तत्थ पडिवश्वपयडीणं बंधाभावादो। मिच्छाइट्ठीसु तेदालीसुत्तरपच्चया, ओघपच्चएसु कम्मइयकायजोगं मोत्तूण सेसबारसजोगपच्चयाणमभावादो। तत्थ पंचमिच्छत्तेसु अवणिदेसु अट्ठत्तीस सासणसम्मादिट्टिपच्चया । तत्थ अणताणुबंधिचउक्कित्थिवेदेसु अवणिदेसु तेत्तीस असंजदसम्मादिट्ठिपच्चया होति । सेसं सुगमं । पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-असादावेदणीय-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदिअरदि-सोग-भय दुगुंछा-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वण्ण-गंध-रस-फासअगुरुवलहुअ-उववाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिरसुहासुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइट्ठी सासणो' च तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं, एदेसिमपज्जत्तकाले णिरय-देवगईणं बंधाभावादो । असंजदसम्मादिट्ठिणो देव-मणुसगइसंजुतं बंधति, तेसिं णिरय-तिरिक्खगईणं बंधाभावादो । मणुसगइ मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवोंके निरन्तर बन्ध पाया जाता है। सासाइनसभ्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके वन्धका अभाव है। __ मिथ्याटियों में तेतालीस उत्तर प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंमें कार्मणकाययोगको छोड़कर शेष बारह योगप्रत्ययोंका अभाव है। उनमेंसे पांच मिथ्यात्वोंको कम करनेपर अड़तीस सासादनसम्यग्दृष्टियोंके प्रत्यय होते हैं। उनमेंसे अनन्तानुवन्धिचतुष्क और स्त्रीवेदको कम करने पर तेतीस असंयतसम्यग्दृष्टियोंके प्रत्यय होते हैं । शेष प्ररूपण सुगम है। पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, नसंस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तरायको मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गति एवं मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इनके अपर्याप्तकालमें नरक व देव गतियोंके वन्धका अभाव है । असंयतसम्यग्दृष्टि देवगति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके नरकगति और तिर्यग्गतिके बन्धका अभाव १ अप्रतौ - मिच्छाइडिंसासणे च ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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