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२३६ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १६०.
मणुसग पाओग्गाणुपुवीओ सब्वे मणुसगइसंजुत्तं बंधति, साभावियादो । ओरालियसरीरओरालियसरीरअंगोवंग- वज्जरि सहसंघडणाणि मिच्छादिङ- सासणसम्मादिट्टिणो तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं, असंजदसम्मादिट्ठिणो मणुसगइसंजुत्तं बंधति, एदासिमण्णगईहि सह विरोहादो । उच्चागोदं मिच्छादिट्ठि- सासणसम्मादिट्ठिणो मणुसगइसंजुत्तमेदेसिमपज्जत्तकाले उच्चागोदाविणाभाविदेवगईए बंधाभावादो | असंजदसम्मादिट्टिणो देव मणुसगइसंजुत्तं बंधंति, तस्सुभयत्थ बंधसंभवदंसणादो |
माणुसगइ - मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-ओरालिय सरीर-ओरालिय सरीर अंगोवंग- वज्जरिसहसंघडणाणं चउगइमिच्छाइट्टि - तिगइसासणसम्माइट्ठि देवणेरइयअसंजद सम्माट्ठो सामी । अवसेसाणं पयडीणं चउगइमिच्छाइट्ठि - असंजदसम्माइट्टिणी तिगइसासणसम्माइट्टिणो च सामी । धद्धाणं सुगमं । एदेसिमेत्थ बंधविणासो णत्थि । पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय बारसकसाय-भय-दुगुंछा-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णचउक्क - अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचतराइयाणं मिच्छाइट्टिम्हि चउव्विहो बंधो । अण्णत्थ तिविहो, धुवबंधाभावादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो सव्वत्थ सादि-अद्भुवो अद्भुवबंधित्तादो ।
है | मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको सब मनुष्यगति से संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, ऐसा स्वाभाविक है । औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभसंहननको मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दा तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त तथा असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इनका अन्य गतियों के साथ विरोध है । उच्चगोत्रको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यगति से संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इनके अपर्याप्तकालमें उच्चगोत्रकी अविनाभाविनी देवगतिके वन्धका अभाव है । असंयतसम्यग्दृष्टि देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त वांधते हैं, क्योंकि, उच्चगोत्रके बन्धकी सम्भावना उक्त दोनों गतियोंके साथ देखी जाती है ।
मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायेोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभसंहननके चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि, तीन गतियोंके सासादनसम्यग्दृष्टि, तथा देव व नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। शेष प्रकृतियों के चारों गतियों के मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि, तथा तीन गतियोंके सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । वन्धाध्वान सुगम है । इनका यहां बन्धविनाश नहीं है ।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों प्रकारका बन्ध होता है । अन्यत्र तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुवबन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका बन्ध सर्वत्र आदि व अनुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
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