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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[१, ११. पवयणभत्तीए- सिद्धंतो बारहंगाणि पवयणं', प्रकृष्टं प्रकृष्टस्य वचनं प्रवचनमिति व्युत्पत्तेः। तम्हि भत्ती तत्थ पदुप्पादिदत्थाणुट्ठाणं । ण च अण्णहा तत्थ भत्ती संभवइ, असंपुण्णे संपुण्णववहारविरोहादो । तीए तित्थयरणामकम्मं बज्झइ । एत्थ सेसकारणाणमंतब्भावो वत्तव्यो। एवमेदं तेरसमं कारणं ।
(पवयणवच्छलदाए-पवयणं सिद्धंतो बारहंगाई, तत्थ भवा देस-महव्वइणो असंजदसम्माइट्टिणो च पवयणा । कुदो एत्थ आकारस्स अस्सवणं ? 'एए छच्च समाणा' ति सुत्तेण आदिवुड्डीए कयअकारत्तादो । तेसु अणुरागो आकंखा ममेदभावो पवयणवच्छलदा णाम । तीए तित्थयरकम्मं बज्झइ । कुदो ? पंचमहव्वदादिआगमत्थविसयस्सुक्कट्ठाणुरागस्स दसणविसुज्झदादीहि अविणाभावादो । तेणेदं चोद्दसमं कारणं ।
प्रवचनभक्तिसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है-सिद्धान्त या बारह अंगका नाम प्रवचन है, क्योंकि, 'प्रकृष्ट वचन प्रवचन, या प्रकृष्ट (सर्वज्ञ ) के वचन प्रवचन हैं 'ऐसी व्युत्पत्ति है । उस प्रवचनमें कहे हुए अर्थका अनुष्ठान करना, यह प्रवचनमें भक्ति कही जाती है। इसके विना अन्य प्रकारसे प्रवचनमें भक्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि, असम्पूर्ण में सम्पूर्णके व्यवहारका विरोध है । इस प्रवचनभक्तिसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है। इसमें शेष कारणोंका अन्तर्भाव कहना चाहिये । इस प्रकार यह तेरहवां कारण है।
__प्रवचनवत्सलतासे तीर्थकर नामकर्म बंधता है- सिद्धान्त या बारह अंगोंका नाम प्रवचन है। इसमें होनेवाले देशवती, महावती और असंयतसम्यग्दृष्टि प्रवचन कहे जाते हैं।
शंका-इसमें आकारका श्रवण क्यों नहीं होता, अर्थात् 'प्रवचनमें होनेवाले' इस विग्रहके अनुसार 'प्रावचन' होना चाहिये, न कि 'प्रवचन' ?
समाधान-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ये छह स्वर और ए, ओ, ये दो सन्ध्य क्षर, इस प्रकार ये आठों स्वर अविरोध भावसे एक दूसरेके स्थानमें आदेशको प्राप्त होते हैं । इस सूत्रसे आदि वृद्धिरूप आ के स्थानपर अ का आदेश हो गया है । - उन प्रवचनों अर्थात् देशवती, महावती और असंयतसम्यग्दृष्टियों में जो अनुराग, आकांक्षा अथवा 'ममेदं' बुद्धि होती है उसका नाम प्रवचनवत्सलता है। उससे तीर्थकर कर्म बंधता है। इसका कारण यह है कि पांच महाव्रतादिरूप आगमार्थविषयक उत्कृष्ट अनुरागका दर्शनविशुद्धतादिकोंके साथ अविनाभाव है, अर्थात् उक्त प्रकार प्रवचनवत्सलता दर्शनविशुद्धतादि शेष गुणोंके विना नहीं बन सकती। इसीलिये यह चौदहवां कारण है।
१प्रवचनं द्वादशाङ्गं तदुपयोगानन्यत्वात्संघो वा प्रवचनम् । प्रव. पृ. ८२.
२ एए छच्च समाणा दोण्णि अ संज्झक्खरा सरा अट्ठ । अण्णोण्णस्सविरोहा उवेति सव्वे समाएसं ॥ कसायपाहुड १, पृ. ३२६.
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