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________________ ११०] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३,५८० संघडण - तिरिक्खगइंपाओग्गाणुपुवी-उज्जोवाणं पुव्वं पच्छा बंधोदयवोच्छेदविचारो णत्थि, एदासमेत्थ उदयाभावादो | अनंताणुबंधिच उक्कस्स सोदय-परोदएण बंधो, अद्धवीदयत्तादो । अप्पसत्थविहायगइदुस्सराणं मिच्छाइट्ठिम्हि सोदय - परोदएण बंधो, अपज्जत्तकाले एदासिमुदयाभावादो । सासणे सोदएणेव बंधो, तस्सेत्थ अपज्जत्तकालाभावा दो । दुभग-अणादेज्ज - णीचागोदाणं सोदणेव बंधो, धुवोदयत्तादो । श्रीणगिद्धितिय इत्थवेद - तिरिक्खगइ चउसठाण च उसंघडण - तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-उज्जोवाणं परोदएणेव बंधो । कुदो ? विस्ससादो । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिच उक्क तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी - णीचा - गोदाणं णिरंतरो बंधो । कुो ? एत्थ धुवबंधित्तादो । सेसाणं सांतरो, एगसमएण हि' बंधवोच्छेदुवलंभादो | पच्चया चउट्ठाणपयडिपच्चयसमा । एदाओ सव्वपयडीओ तिरिक्खगइसंजुत्त धति । रइया सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं च सुगमं । श्रीणगिद्धितिय -अणंताणुबंधिचउक्काणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउन्विहो बंधो, धुवबंधित्तादो | सासणम्मि सादि - अद्भुवा । साणं ग्यानुपूर्वी और उद्योत, इनके पूर्व में या पश्चात् बन्धोदयव्युच्छेद होनेका विचार नहीं है, क्योंकि, यहां इनके उदयका अभाव है । अनन्तानुबन्धिचतुष्कका स्वोदय-परोदय से बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी हैं । अप्रशस्तविहायोगति और दुस्वरका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय- परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें इनका उदय नहीं रहता । सासादन गुणस्थानमें स्वोदयसे ही इनका बन्ध होता है, क्योंकि, इस गुणस्थानका यहां अपर्याप्तकालमें अभाव है। दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्र, इनका स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, ये प्रकृतियां ध्रुवोदयी हैं । स्त्यानगृद्धि आदिक तीन, स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योत, इनका परोदयसे ही वन्ध होता है। इसका कारण स्वभाव ही है । स्त्यानगृद्धि आदिक तीन, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्र, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां वे ध्रुवबन्धी हैं। शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धव्युच्छेद पाया जाता है। प्रत्ययोंकी प्ररूपणा चतुस्थानिक प्रकृतियोंके समान है । इन सब प्रकृतियोंको तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं। नारकी जीव इनके बन्धके स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । स्त्यानगृद्धि आदिक तीन और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं। सासादनगुणस्थानमें १ प्रतिषु हि पदं नोपलभ्यते, मप्रतौ तु समुपलभ्यते तत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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