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________________ १, ६१.] सत्तमपुढवीए बंधसामित्तपरूवणा [ १११ पयडीणं बंधो सव्वत्थ सादि-अद्भुवो, अद्भुवबंधित्तादो । मिच्छत्त-णवंसमवेद-तिरिक्खाउ-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ५९ ॥ सुगम । मिच्छाइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ६०॥ एदस्स वक्खाणं णिरओघएगट्ठाणियवक्खाणतुलं । णवरि तिरिक्खगइसंजुत्तं बंधदि त्ति वत्तव्यं । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बी-उच्चागोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ६१ ॥ सुगमं । सादि व अध्रुव बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सर्वत्र सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, तिर्यगायु, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसपाटिकाशरीरसंहनन प्रकृतियोंका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ५९॥ यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ ६०॥ इस सूत्रका व्याख्यान नारकसामान्यकी एकस्थानिक प्रकृतियोंके व्याख्यानके समान है। विशेष इतना है कि [यहां सातवीं पृथिवीमें] तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं, ऐसा कहना चाहिये। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र प्रकृतियोंका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ६१ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ प्रतिषु — एगट्ठाणाणिय-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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