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३, २६०.] लेस्सामग्गणार बंधसामित
[३३३ बंधो पुवमुदओ पच्छा वोच्छिज्जदि, सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । अण्णो वि जइ भेदो अस्थि सो वि चिंतिय वत्तव्यो ।
तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिएसु पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीयसादावेदणीय-चउसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछा-देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउब्बिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध रस-फास-देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुह-सुभग सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिणुच्चागोद-पंचं. तराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २५९ ॥
सुगमं ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजंदा बंधा। एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ २६० ॥
देवगइ-वेउब्वियदुगाणं पुव्वमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिज्जदि । अवसेसाणं पयडीण
व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमसे उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । अन्य भी यदि भेद है तो उसे भी विचारकर कहना चाहिये ।
तेज और पद्म लेश्यावाले जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २५९ ॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २६०॥
देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता
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