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________________ ३६.] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २७७. मिच्छत्त-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णचउक्क-अगुरुअलहुअ-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो । पंचदंसणावरणीय-सादासाद-सोलसकसाय-णवणोकसाय-तिरिक्ख-मणुस्साउतिरिक्ख-मणुसगइ-पंचिंदियजादि-ओरालियसरीर-छसंठाण-ओरालियसरीरंगोवंग-छसंघडणतिरिक्ख-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-उवघाद-परघाद-उस्सास-आदावुज्जोव-दोविहायगइ-तसथावर-बादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-सुभग-दूभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्जअणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णीचुच्चागोदाणं सोदय-परोदओ बंधो। देवाउ-णिरयाउदेवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुन्वि-णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवी-वेउव्वियसरीरंगोवंगाणं परोदओ बंधो, सोदएण बंधविरोहादो । पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-चत्तारिआउतेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । सादासाद-इत्थि-णउंसयवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-णिरयगइएइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चरिंदियजादि-पंचसंठाण-छसंघडण-णिरयगइपाओग्गाणुपुवी-आदाउज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीर-थिराथिर-सुहासुह-दूभग-दुस्सरअणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो । वर्णादिक चार, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तरायका खोदय बन्ध होता है। पांच दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यगायु, मनुष्यायु, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, तिर्यग्गति व मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, अस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक व साधारण शरीर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और नीच व ऊंचगोत्रका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। देवायु, नारकायु, देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, नरकगति नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है। पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, चार आयु, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके यन्धविश्रामका अभाव है । साता व असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुसंकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, पांच संस्थान, छह संहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी इनका बन्धविश्राम देखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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