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________________ ३, २७७.] भवियमग्गणाए बंधसामित्त पुस्सिवेदस्स बंधो सांतर-णिरंतरो। कुदो ? पम्म-सुक्कलेस्सिएसु णिरंतरबंधुवलंमादो । देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउव्वियसरीर-समचउरससंठाण-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुव्वी-परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-सुभग-सुस्सर-आदेज्जउच्चागोदाणं सांतर-णिरंतरो बंधो । कुदो ? असंखेज्जवासाउअ-सुहतिलेस्सियतिरिक्खमणुस्सेसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं बंधो सांतर-णिरंतरो । कुदो ? आणदादिदेवेसु णिरंतरबंधुवलंभादो। तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीणीचागोदाणं बंधो सांतर-णिरंतरो। कुदो ? तेउ-वाउकाइएसु सत्तमपुढवीणेरइएसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंगाणं सांतर-णिरंतरो, सणक्कुमारादिदेव-णेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो। सम्बकम्माणं पंचवंचास पच्चया । णवरि तिरिक्ख-मणुस्साउआणं तेवंचास पच्चया, वेउम्वियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो । देव-णिरयाउआणं एक्कवंचास पच्चया, वेउब्वियदुगोरालियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो। देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवी-णिरयगइणिरयगइपाओग्गाणुपुथ्वी-वेउव्वियसरीर-वेउब्वियसरीरंगोवंगाणमेक्कवंचास पच्चया, वेउब्विय जाता है। पुरुषवेदका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले जीवोंमें उसका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, असंख्यातवर्षायुष्क और शुभ तीन लेश्यावाले तिर्यंच व मनुष्योंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका सान्तर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, आनतादिक देवोंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। तिर्यग्गति, तिर्य ग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तेज व वायु कायिक जीवों में तथा सप्तम पृथिवीके नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, सनत्कुमारादि देव व नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। सब कौके पचवन प्रत्यय हैं। विशेष इतना है कि तिर्यगायु और मनुष्यायुके तिरेपन प्रत्यय हैं, क्योंकि, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है। देवायु और नारकायुके इक्यावन प्रत्यय हैं, क्योंकि, वैक्रियिकाद्वक, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है। देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगके इक्यावन प्रत्यय हैं, क्योंकि, वैक्रियिकरिक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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