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________________ ३, १६८.] जोगमग्गणाए बंधसामित्तं [२४१ आदाव-थावराणं तिगइमिच्छाइट्टी सामी, णिरयगइमिच्छाइट्ठिम्हि तासिं बंधाभावादो। बीइंदियतीइंदिय-चउरिदिय-सुहम-अपज्जत्त-साहारणाणं तिरिक्ष मणुसगइमिच्छाइट्ठी सामी, देव-णेरइएसु एदासिं बंधाभावादो । बंधद्धाणं बंधविणवाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स बंधो चउविहो । सेसाणं सादि-अद्धवो । देवगइ-वेउब्वियसरीर-वेउब्वियसरीरंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुवि-तित्थयरणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १६७ ॥ सुगमं । असंजदसम्मादिही बंधा। एदे बंधा, अवेससा अबंधा ॥१६८॥ किं बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति एत्थ विचारो णत्थि, एक्कम्हि तदसंभवादो। एदासिं पंचण्हं पि परोदओ बंधो, सोदएण सह सगबंधस्स विरोहादो। णिरंतरो बंधो, णियमेणाणेगसमयबंधदंसणादो । विग्गहगदीए दोण्हं समयाणं कधमणेगववएसो ? ण, एगं मोत्तणुवरिमसव्वसंखाए अणेगसद्दपवुत्तीदो । पच्चया सुगमा । णवरि णसयवेदपच्चओ विरोध नहीं है । एकेन्द्रिय, आताप और स्थावर प्रकृतियोंके तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगतिमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें उनके बन्धका अभाव है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके तिर्यग्गति व मनुष्यगतिके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, देव व नारकियोंमें इनके बन्धका अभाव है। बन्धावान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वका बन्ध चारों प्रकारका होता है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है। देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और तीर्थकर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १६७ ॥ यह सूत्र सुगम है। असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अवन्धक हैं ॥ १६८॥ क्या बन्ध उदयसे पूर्व में या पश्चात व्यच्छिन्न होता है. यह विचार यहां नहीं है. क्योंकि, एक गुणस्थानमें उक्त विचार सम्भव नहीं है । इन पांचों प्रकृतियोंका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनके अपने उदयके साथ वन्ध होने का विरोध है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, नियमसे इनका अनेक समय तक बन्ध देखा जाता है। शंका-विग्रहगतिमें दो समयोंका नाम अनेक समय कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, एकको छोड़कर ऊपरकी सब संख्यामें ' अनेक' शब्दकी प्रवृत्ति है। __ प्रत्यय सुगम हैं। विशेष इतना है कि यहां नपुंसकवेद प्रत्यय नहीं है, क्योंकि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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