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________________ ३, १७१.] वेदमग्गणाए बंधसामित्तं [२४७ सासणम्मि सांतरो, तत्तो तेसिमुववादाभावादो । अवसेसाणं पयडीण बंधो सांतरा, अणियमेणगसमयबंधुवलंभादो । एसा परूवणा ओघादो थोवेण वि ण विरुज्झदि, समाणत्तुवलंभादो । पच्चया ओघपच्चयतुल्ला । णवरि मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीणं जहाकमेण तेवण्णद्वेत्तालीसुत्तरपञ्चया, पुरिस-णqसयवेदपच्चयाणमभावादो । तिरिक्खाउअस्स मिच्छादिट्ठिसासणसम्मादिट्ठीसु कमेण पंचास पंचेतालीस पच्चया, ओरालिय-वे उब्वियमिस्स-कम्मइयकायजोग-पुरिस-णवंसयवेदपच्चयाणमभावादो । तदभावो वि इत्थिवेदोदइल्लाणमपज्जत्तकाले आउअकम्मस्स बंधाभावादो । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुग्वि-उज्जोवाणि मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो तिरिक्खगइसंजुत्तं बंधंति । अप्पसत्थविहायगदि-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणि मिच्छाइट्ठिणो तिगइसंजुत्तं बंधंति, देवगईए बंधाभावादो। सासणसम्माइट्ठिणो तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तं बंधति, देव-णिरयगईए सह बंधाभावादो। चउसंठाण-चउसंघडणाणि तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तं बंधंति, एदासिं णिरय-देवगईहि सह बंधाभावादो । थीणगिद्धित्तिय-अणंताणु पाया जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उस गुणस्थानसे उक्त जीवोंके उत्पादका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, विना नियमके उनका एक समय बन्ध पाया जाता है । यह प्ररूपणा ओघसे थोड़ी भी विरुद्ध नहीं है, क्योंकि, समानता पायी जाती है। __ प्रत्यय ओघप्रत्ययोंके समान हैं । विशेषता इतनी है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंके यथाक्रमसे तिरेपन और अड़तालीस उत्तर प्रत्यय हैं, क्योंकि, उनके पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंका अभाव है। तिर्यगायुके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमसे पचास और पैंतालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, उनके औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, कार्मणकाययोग, पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंका अभाव है । उनका अभाव भी स्त्रीवेदोदय युक्त जीवोंके अपर्याप्तकालमें आय कर्मके बन्धका अभाव होनेसे है। ___ तिर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतको मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि जीव तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं। अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रको मिथ्यादृष्टि जीव तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके देवगतिके बन्धका अभाव है। सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके देव व नरक गतिके साथ उनका बन्ध नहीं होता। चार संस्थान और चार संहननको तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इनका नरकगात व देवगतिके साथ बन्ध नहीं होता । स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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