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________________ २०६१ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ । ३, १७१. अणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडण-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वि-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणि बेहाणियाणि । एदेसु अणंताणुबंधिच उक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा । अण्णपयडीणं' सव्वासि पि पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छेदुमुवगओ । कुदो ? तधोवलंभादो । थीणंगिद्धित्तिय-अणंताणुबंधिचउक्क-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चदुसंठाण-चदुसंघडणतिरिक्खाणुपुब्वि-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं बंधो सोदयपरोदओ, उभयथा वि बंधाविरोहादो। इथिवेदस्स सोदएणेव बंधो, तदुदयमहिकिच्च परूषणापारंभादो । ओघादो एत्थ विसेसो एसो, तत्थ सोदय-परोदएहि बंधोवदेसादो । ___ थीणगिद्धित्तिय-अणंताणुबंधिच उक्क-तिरिक्खाउआणं बंधो णिरंतरो । तिरिक्खगइतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-णीचागोदाणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंतरो, सत्तमपुढवीणेरइएहिंतो तेउ-वाउकाइएहिंतो च णिप्फिडिदूणित्थिवेदेसुप्पण्णाणं मुहुत्तस्संतो णिरंतरबंधुवलंभादो । स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, ये द्विस्थानिक प्रकृतियां हैं । इनमें अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं । अन्य सब ही प्रकृतियोंका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छेदको प्राप्त होता है, क्योंकि, वैसा पाया जाता है । स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, तिर्यगायु, तिर्यग्गात, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यगानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और का बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे ही उनके बन्धके विरोधका अभाव है। स्त्रीवेदका स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, उसके उदयका अधिकार करके इस प्ररूपणाका प्रारम्भ हुआ है । ओघसे यहां यह विशेष है, क्योंकि, वहां स्वोदय-परोदयसे बन्धका उपदेश है। स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और तिर्यगायुका बन्ध निरन्तर होता है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तरनिरन्तर होता है, क्योंकि, सप्तम पृथिवीके नारकियोंमेंसे तथा तेजकायिक व वायुकायिक जीवों से निकलकर स्त्रीवेदियों में उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहर्त काल तक निरन्तर बन्ध १ प्रतिषु ' अण्णापयडीणं' इति पाठः। २ प्रतिषु तदुभयमहिकिच' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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