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________________ २४८] [ ३, १७२. बंधिचउक्काणि मिच्छाइडिणो चउगइसंजुत्तं, सासणसम्मादिडिणो तिगइ संजुत्तं बंधंति, रियाईए अभावादो | छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ सव्वासि पडणं तिगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्टिणो सामी, णिरयगईए इस्थिवेददयाभावाद । बंधद्धाणं बंधविणडाणं च सुगमं, सुत्तुद्दित्तादो । सत्तण्हं धुवपयडीणं मिच्छाहि उव्व बंधो । सासणे दुविहो बंधो, अणाइ धुवाभावादो । अवसेसाणं सव्वत्थ सादि- अद्धवो अद्धवबंधित्तादो | णिद्दा पयला य ओघं ॥ १७२ ॥ दासिंदोह पडणं जहा ओघम्मि परूवणा कदा तहा कायव्वा । णवरि पच्चएस पुरिस - णवुंसयवेदपच्चया अवणेदव्वा । णवरि असंजद सम्मादिडिम्हि ओरालिय-वेउब्वियमिस्सकम्मइयकाय जे गा' च, इत्थवेदाहियारादो । पमत्तसंजदम्हि पुरिस णवुंसयवेदेहि सह आहारदुर्ग च अवणेदव्वं, अप्पसत्थवेदोदइल्लाणमाहार सरीरस्सुदयाभावाद । तिगइमिच्छादिङि-सासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठि-असजद सम्मादिट्टिणी सामी, णिरयगईए इत्थवेदोदइलाणमभावादो | बन्धिचतुष्कको मिथ्यादृष्टि चार गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके नरकगतिका बन्ध नहीं होता । सब प्रकृतियोंके तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगति में स्त्रीवेदके उदयका अभाव है । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं, क्योंकि, वे सूत्र में ही निर्दिष्ट हैं। सात ध्रुवप्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों प्रकारका बन्ध होता है । सासादन गुणस्थान में दो प्रकारका बन्ध होता, क्योंकि, वहां अनादि व ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं । निद्रा और चला प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ १७२ ॥ इन दो प्रकृतियोंकी जैसे ओघमें प्ररूपणा की गई है वैसे करना चाहिये । विशेष यह है कि प्रत्ययों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययौको कम करना चाहिये । इतनी और भी विशेषता है कि असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग प्रत्ययों को भी कम करना चाहिये, क्योंकि, स्त्रीवेदका अधिकार है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में पुरुष और नपुंसक वेदों के साथ आहारकद्विकको भी कम करना चाहिये, क्योंकि, अप्रशस्त वेदोदय युक्त जीवोंके आहारकशरीर के उदयका अभाव है । तीन गतियों के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगतिमें स्त्रीवेदोदय युक्त जीवोंका अभाव है । केवल इतनी ही ओघसे १ प्रतिषु ' कायजोगो' इति पाठः । २. कात' सासणसम्माइङ्की असंजदसम्मादिट्टिणो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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