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३, १७३. ]
वेदमग्गणाए बंधसामित्तं
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एत्तिओ व विसेसो, णत्थि अण्णत्थ कत्थ वि । तेण दव्वट्टियणयं पडुच्च ओघमिदि वृत्तं । असादावेदणीयमोघं ॥ १७३ ॥
असाद वेदणीयमिच्चेण पयडिणिसो ण कदो, किंतु असादावेदणीय-अरदि-सोगअथिर-असुह-अजसकित्ति त्ति छप्पयडिघडिओ असाददंडओ असादवेदणीयमिदि णिद्दिट्ठो । जहा सच्चहामा भामा, भीमसेणो सेणो, बलदेवो देवो ति । एदासिं छण्णं परूवणा ओघ - तुल्ला । णवरि एत्थ वि पच्चयविसेसो सामित्तविसेसो च णायव्वो ।
एक्कट्टाणी ओघं ॥ १७४ ॥
एक्कमि मिच्छाइट्टिगुणाणे जाओ पयडीओ बंधपाओग्गा हो दूण चिति तासिमेगट्ठाणि त्ति सण्णा । तिस्से एक्कड्डाणीए परूवणा ओघतुल्ला । तं जहा मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा । णवुंसयवेद- णिरयाउ- णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वी एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदियचउरिंदियजादि - आदाव - थावर - सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं बंधोदयवोच्छेदविचारो णत्थि,
विशेषता है, अन्यत्र और कहीं भी विशेषता नहीं है । इसीलिये द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा कर ' ओघके समान है, ' ऐसा कहा गया है ।
असातावेदनीयकी प्ररूपणा ओधके समान है ॥ १७३ ॥
असातावेदनीय इस पदसे प्रकृतिका निर्देश नहीं किया है, किन्तु असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति, इन छह प्रकृतियोंसे सम्बद्ध असाताद्ण्डक ' असातावेदनीय ' पदसे निर्दिष्ट किया गया है । जैसे सत्यभामाको 'भामा', भीमसेनको ‘सेन' और बलदेवको 'देव' पदसे निर्दिष्ट किया जाता है । इन छह प्रकृतियों की प्ररूपणा ओके समान है । विशेष इतना है कि यहां भी प्रत्ययभेद और स्वामित्वभेद जानना चाहिये ।
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एकस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघ के समान है ॥ १७४ ॥
एक मिध्यादृष्टि गुणस्थान में जो प्रकृतियां बन्धयोग्य होकर स्थित हैं उनकी ' एकस्थानिक ' संज्ञा है । उन एकस्थानिकोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । वह इस प्रकार है - मिथ्यात्वका वन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं । नपुंसकवेद, नारकायु, नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इनके बन्ध और उदयके व्युच्छेदका विचार
१ काप्रती ' अमुह-जस अजसकित्ति ' इति पाठः ।
छ. नं. ३२.
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