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________________ १६४] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, १०२. बज्झमाणपयडीओ बंधमाणसु 'बंधादो उदओ किं पुत्वं किं वा पच्छा वोच्छिण्णो' त्ति विचारो णस्थि । पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय--मिच्छत्त-णqसयवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइबीइंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-तस-बादर थिराथिर सुभासुभ-दुभग-अणादेज-णिमिण-णीचागोद-पंचंतरायइयाणं सोदओ बंधो, एत्थ एदासिं धुवोदयत्तदंसणादो । णिहाणिद्दा-पयलापयला-सादासाद-सोलसकसाय-छणोकसाय-पज्जत्तापज्जत्त-जसअजसकित्तीण सोदय-परोदओ बंधो, उभयथा वि बंधस्स विरोहाभावादो । ओरालियसरीरहुंडसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-असंपत्तसेवट्टसंघडण-उवघाद-पत्तेयसरीराणं पि सोदय-परोदओ, विग्गहगदीए उदयाभावे वि बंधुवलंभादो । तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुवीए वि सोदय- परोदओ बंधो, विग्गहगदीदो अण्णत्थ उदयाभावे [वि बंधदसणादो । परघादुस्सासुजोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुस्सराणं पि सोदय-परोदओ बंधो, अपज्जत्तकाले उदयाभावे वि बंधदंसणादो, उज्जोवस्स उज्जोवोदयविरहिदाविरहिदेसु बंधुवलंभादो । इत्थि-पुरिस-मणुस्साउ-मणुसगइ-एइंदिय-तीइंदियं तिर्यंच अपर्याप्तोंके द्वारा बध्यमान प्रकृतियों को बांधनवाल द्वीन्द्रिय जीवों में 'वन्धसे उदय क्या पूर्वमें या क्या पश्चात् ब्युच्छिन्न होता है यह विचार नहीं है । __पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, नपुंसकवद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, द्वीन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय वन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनका ध्रुव उदय देखा जाता है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, छह नोकषाय, पर्याप्त, अपर्याप्त, यशकीर्ति, और अयशकीर्ति, इनका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनके बन्धका विरोध नहीं है । औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, असंप्राप्तनृपाटिकासंहनन, उपघात और प्रत्येकशरीर, इनका भी स्वोदय-परोदय वन्ध होता है, क्योंकि विग्रहगतिमें उदयका अभाव होनेपर भी इनका वन्ध पाया जाता है । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका भी स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिको छोड़कर अन्यत्र उसका उदयाभाव होनेपर भी वन्ध देखा जाता है । परघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति और दुस्वरका भी स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। क्योंकि, अपर्याप्तकालमें इनका उदयाभाव होनेपर भी वन्ध देखा जाता है, तथा उद्योतका उद्योतके उदयसे रहित और उससे सहित जीवों में उसका वन्ध पाया जाता है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, मनुष्यायु, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, मप्रती एइंदिय-बाइंदिय-तीइंदिय-' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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