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________________ ३, १०२.] बीइंदिएसु बंधसामित्त [१६५ चउरिंदिय- पंचिंदियजादि-अणंतिमपंचसंठाण-पंचसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-आदावपसत्थविहायगइ-थावर-सुहुम-साहारणसरीर-सुभग-सुस्सर-आदेज्जुच्चागोदाणं परोदओ बंधो। पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तिरिक्ख-मणुस्साउ-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-उवघाद-णिमिण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। दोण्णमाउआणं णिरंतरो, एगसमएण वोच्छेदाभावादो । सादासाद-सत्तणोकसाय-मणुसगइ-एइंदिय-बाइंदिय-तीइंदिय-चउरिदियपंचिंदियजादि-छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी- परघादुस्सास-आदाउज्जोव-दोविहायगइ-तम-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीरथिराधिर-सुहासुह-सुभग-दुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-उच्चागोदाणं सांतरो बंधो, एगसमएणेदासिं बंधुवरमदंसणादो । परघादुस्सास-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणमेइंदिएसु व सांतर-णिरंतरो बंधो किण्ण परुविदो? ण, देवाणमइदिएसु व विगलिंदिएसु उववादाभावादो। अन्तिम संस्थानको छोड़कर पांच संस्थान, पांच संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, प्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म साधारणशरीर, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र, इनका परोदय बन्ध होता है । पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, मनुष्यायु, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके बन्धविश्रामका अभाव है। दो आयुओंका निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उनके बन्धव्युच्छेदका अभाव है । साता व असाता वेदनीय, सात नोकषाय, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक व साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदय, अनादेय, यशकीर्ति और उच्चगोत्र, इनका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है। . __ शंका-परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका एकेन्द्रिय जीवोंके समान सान्तर निरन्तर वन्ध क्यों नहीं कहा गया ? । समाधान-एकेन्द्रियों के समान विकलेन्द्रियों में देवोंकी उत्पत्ति न होनेसे यहां उक्त प्रकृतियोंका सान्तर-निरन्तर बन्ध नहीं कहा गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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