SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, १०२. तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वीणीचागोदाणं सांतर - निरंतरो बंधो । कथं णिरंतरो ? ण, तेउ वाउकाइएहिंतो बीइंदिएसुप्पण्णाणमंतोमुहुत्तकालमेदासिं निरंतरबंधुवलंभादो । १६६ ] एदासिं मूलपच्चया चत्तारि । पंच मिच्छत्त, दोइंदियासंजमा, छप्पाणासंजमा, सोलस कसाया, सत्त णोकसाया, चत्तारि जोगा, सव्वेदे बीइंदियस्स' चालीसुत्तरपच्चया । वरि तिरिक्ख मणुस्साउआणं कम्मइयपच्चएण विणा एगूणचालीस पच्चया । एक्कारस अट्ठारस एगसमइयजहण्णुक्कस्सपच्चया । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगड् एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय - चउरिंदियजादि-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वी-आदावुज्जोव थावर - सुहुम-साहारणाणं तिरिक्खगइ संजुत्ता बंधो। मणुस्सा उ-मणुस्सगइमणुस्सगइपाओग्गाणुपुवी - उच्चागोदाणं मणुसगइसंजुत्तो बंधो । सेसाणं पयडीणं तिरिक्ख मणुस्सगइ संजुत्तो बंधो । कुदो ? दोहि गदीहि सह विरोहाभावादो । बंधद्वाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि । धुवियाणं चउव्विहो बंधो । अवसेसाणं सादि - अद्भुवो । एवं पज्जत्ताणं । वरि तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर - निरन्तर बन्ध होता है । शंका - निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? समाधान - यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि, तेजकायिक और वायुकायिक जीवों में से द्वीन्द्रियों में उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । इनके मूल प्रत्यय चार होते हैं। पांच मिथ्यात्व, दो इन्द्रियासंयम, छह प्राणिअसंयम, सोलह कपाय, सात नोकपाय और चार योग, ये सब द्वीन्द्रिय जीवके चालीस उत्तर प्रत्यय होते हैं । विशेषता केवल इतनी है कि तिर्यगायु व मनुष्यायुके कार्मण प्रत्ययके विना उनतालीस प्रत्यय होते हैं । ग्यारह व अठारह क्रम से एक समय सम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट प्रत्यय होते हैं । तिर्यगायु, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इनका तिर्यग्गतिसे संयुक्त बंध होता है | मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका मनुष्यगति से संयुक्त बन्ध होता है । शेष प्रकृतियोंका तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों गतियोंके साथ उनके बन्धका विरोध नहीं है । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धयुच्छेद नहीं है । ध्रुव प्रकृतियोंका चारों प्रकारका बन्ध होता है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है । इसी प्रकार द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा है । विशेषता केवल इतनी है कि २ प्रतिषु ' दुवियाणं ' इति पाठः । १ प्रतिषु Jain Education International - सम्वेदे वा बीइंदियस्स ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy