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________________ ३, १०२.] तीइंदय-चउरिदिएसु बंधसामित्तं [ १६७ पज्जत्तणामस्स सोदओ, अपज्जत्तणामस्स परोदओ बंधो । एवमपज्जत्ताण पि वत्तव्वं । णवीर थीणगिद्धितिय-परघादुस्सास-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-पज्जत्त-दुस्सर-जसकित्तीणं परोदओ बंधो। अपज्जत्त-अजसकित्तीण सोदओ। अपज्जत्ताणमट्ठत्तीस पच्चया, ओरालियकायासच्चमोसंवचिजोगाणमभावादो । तीइंदियाणं तीइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं च बीइंदिय-बीइंदियपज्जत्तं-बीइंदियअपज्जत्तभंगा। णवरि घाणिदिएण सह तेइंदियपज्जत्ताणमेक्केतालीस पच्चया । अपज्जत्ताणमेगूण चालीस, ओरालियकायासच्चमोसवचिजोगाणमभावादो । तीइंदियणामस्स सोदओ बंधो । अवसेसिंदियणामाणं परोदओ। ___ चरिंदियाणमेवं चेव वत्तव्यं । णवरि चउरिदियजादिबंधो सोदओ । सेसिंदियजादिबंधो परोदओ। बादालीसुत्तरपच्चया, चक्खिदियप्पवेसादो । अपज्जत्ताणं चालीस पच्चया, उनके पर्याप्त नामकर्मका स्वोदय और अपर्याप्त नामकर्मका परोदय बन्ध होता है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय अपर्याप्तोंका भी कथन करना चाहिये । विशेष यह है कि स्त्यानगृद्धित्रय, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, पर्याप्त, दुस्वर और यशकीर्तिका परोदय बन्ध होता है । अपर्याप्त और अयशकीर्तिका स्त्रोदय बन्ध होता है । अपर्याप्तोंके अड़तीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, औदारिक काययोग और असत्य मृषा वचनयोगका उनके अभाव है। . श्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय पर्याप्त और त्रीन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय पर्याप्त और द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके समान है । विशेषता इतनी है कि प्राण इन्द्रियके साथ श्रीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके इकतालीस प्रत्यय होते हैं। अपर्याप्तोंके उनतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, उनके औदारिक काययोग और असत्य मृषा वचनयोगका अभाव है। त्रीन्द्रिय नामकर्मका स्वोदय बन्ध होता है। शेष इन्द्रिय नामकर्मोंका परोदय वन्ध होता है। चतुरिन्द्रिय जीवोंका भी इसी प्रकार ही कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि उनके चतुरिन्द्रिय जातिका स्वोदय वन्ध होता है। शेष इन्द्रिय जातियोंका बन्ध परोदय होता है । यहां चक्षु इन्द्रियका प्रवेश होनेसे ब्यालीस उत्तर प्रत्यय होते हैं । अपर्याप्तोंके १ आपतो ओरालियकायसच्चमोस.' इति पाठः। २ प्रतिषु तीइंदियाणं तीइंदियपज्जत्ताणं तीइंदियअपज्जत्ताणं चरिंदिय-बीइंदियपज्जत्तमप्रती 'तीइंदियाणं तीइंदियपजतापज्जताणं च बीइंदियपच्चत्त- ' इति पाठः । ३ प्रतिषु — ओरालियकायसच्चमोस' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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