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________________ ३, १०२.] बीइंदिएसु बंधसामित्तं पज्जत्त-पत्तेयसरीराणमेइंदिएसु सांतर-णिरंतरो बंधो । एत्थ पुण सांतरो चेव, अपज्जत्तेसु देवाणमुप्पत्तीए अभावादो । ओरालियकायजोगपच्चओ णत्थि । सुहुमएइंदियाणं एइंदियभंगो। गवरि परघादुस्सास-बादर पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं सांतरो बंधो, सुहुमेइंदिएसु देवाणमुववादाभावादो । बादर-आदाउज्जोव-जसकित्तीणं परोदओ बंधो। सुहुमेइंदियपज्जताणं [सुहुमेइंदियभंगो। णवरि पज्जत्तस्स सोदओ, अपज्जत्तस्स परोदओ बंधो । सुहुमेइंदियअपज्जत्ताणं ] सुहुमेइंदियपज्जत्तभंगो । णवरि थीणगिद्धितिय-परघादुस्सासपज्जत्ताणं परोदओ बंधो । अपज्जत्तणामस्स सोदओ । पच्चएसु ओरालियकायजोगपच्चओ अवणेदव्वा । ___ संपधि बीइंदियाणं भणामो- इत्थि-पुरिसवेद-मणुस्साउ-मणुसगइ-एइंदियतीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियजादि-अणंतिमपंचसंठाण-पंचसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीआदाव-पसत्थविहायगदि-थावर-सुहुम-साहारणसरीर-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-उच्चागोदाणमुदयाभावादो सेसपयडीणं चोदयवोच्छेदाभावादो बेइंदिएसु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएहि उच्छास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीर, इनका एकेन्द्रियों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है । परन्तु यहां उनका सान्तर ही बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकोंमें देवोंकी उत्पत्तिका अभाव है। यहां प्रत्ययों में औदारिक काययोग प्रत्यय नहीं है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंकी प्ररूपणा एकेन्द्रियों के समान है। विशेषता यह है कि परयात, उच्छ्वास, वादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका उनके सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रियों में देवोंकी उत्पत्तिका अभाव है। बादर, आताप, उद्योत और यशकीर्तिका परोदय बन्ध होता है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तोंकी प्ररूपणा [ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके समान है। विशेष इतना है कि उनके पर्याप्त प्रकृतिका स्वोदय और अपर्याप्त प्रकृतिका परोदय बन्ध होता है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा ] सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान है । विशेष इतना है कि स्त्यानगृद्धित्रय, परघात, उच्छ्वास और पर्याप्त प्रकृतियांका परोदय बन्ध होता है। अपर्याप्त नामकर्मका स्वोदय वन्ध होता है। प्रत्ययोंमें औदारिककाययोग प्रत्ययको कम करना चाहिये। अव द्वीन्द्रिय जीवों की प्ररूपणा करते हैं- स्त्रीवेद, पुरुषवेद, मनुष्यायु, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, अन्तिम संस्थानको छोड़ शेष पांच संस्थान, अन्तिम संहननको छोड़ शेष पांच संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, प्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारणशरीर, सुभंग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र, इनके उदयका अभाव होनेसे, तथा शेष प्रकृतियोंके उदयव्युच्छेदका अभाव होनेसे पंचेन्द्रिय १ अप्रतो ' मुहुमेएइंदियाणि वेइंदियभंगो'; आप्रतौ — सुहुमएइंदियाणि वेइंदियभंगो'; काप्रतौ ' सुहुमेइंदियाणि वेइंदियभंगो' इति पाठः । २ प्रतिघु एइंदिय बीइंदिय-तीइंदिय-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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