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________________ २८.) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २०८. गइ-थिर-सुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्तीणं तिगइसंजुत्तो बंधो, णिरयगईए अभावादो । अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज-णीचागोदाणं तिगइसंजुत्तो बंधो, देवगईए अभावादो। णवरि सासणे तिरिक्ख-मणुसगइसजुत्तो । उच्चागोदस्स देव-मणुसगइसंजुत्तो, अण्णगईहि विरोहादो । पंचणाणावरणीय-णवर्दसणावरणीय-असादावेदणीय-सोलसकसाय-अरदि-सोग-भयदुगुंछा-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघादउस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-अथिर-असुह-अजसकित्ति-णिमिण पंचंतराइयाणं मिच्छाइट्टिम्हि चउगइसंजुत्तो बंधो । सासणे तिगइसंजुत्तो, णिरयगईए अभावादो।। देवाउ-देवगइ-वेउव्वियसरीर-वेउन्वियसरीरंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुवीणं बंधस्स तिरिक्ख-मणुसमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो सामी । अवसेसाणं चउगइया। बंधद्धाणं सुगमं। बंधवोच्छेदो णत्थि, ' अबंधा णत्थि ' त्ति सुत्तुद्दिद्वृत्तादो। धुवबंधीणं मिच्छाइट्ठिम्हि बंधो चउव्विहो । सासणे तिविहो, धुवत्ताभावादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो । एवमेसा मदि-सुदअण्णाणीणं परूवणा कदा। रति, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, और यशकीर्तिका तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, नरकगतिके साथ इनके बन्धका अभाव है। अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, देवगतिके साथ उसके बन्धका अभाव है। विशेषता इतनी है कि सासादन गुणस्थानमें तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । उच्चगोत्रका देवगति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ उसके बन्धका विरोध है। पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, असातावेदनीय, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, अयशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तरायका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, नरकगतिके साथ इस गुणस्थानमें उनके बन्धका अभाव है। देवायु, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और देवगातिप्रायोग्यानुपूर्वीके बन्धके तिर्यंच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धके चारों गतियोंके जीव स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद है नहीं, क्योंकि, वह 'अबन्धक नहीं हैं। इस प्रकार सूत्रोक्त ही है। ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका ह सासादन गुणस्थानमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। इस प्रकार यह मतिःश्रुत अशानियोंकी प्ररूपणा की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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