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________________ ३, २०८.] णाणमग्गणाए बंधसामित्तं [२८३ दुस्सास-तस-बादर-पज्जत-पत्तयसरीराणं मिच्छाइट्ठिम्हि बंधे। सांतर-णिरंतरो । कथं णिरंतरो ? देव-णेरइएसु असंखेज्जवासाउअतिरिक्व-मणुस्सेसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । सासणसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, तत्थ पडिवक्खपयडिबंधाभावादो परघादुस्सासंबंधविरोहिअपज्जत्तस्स बंधाभावादो च । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वि-णीचागोदाणं पि बंधो सांतर-णिरंतरो । कधं णिरंतरो? ण, तेउ-वाउकाइयमिच्छाइट्ठीसु सत्तमपुढविमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहितो भेदाभावादो । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवि-उज्जोवाणं तिरिक्खगइसंजुत्तो बंधो । मणुसाउ-मणुसगइ मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं मणुगइसंजुत्तो बंधो । देवाउ- [ देवगइ. ] देवगइपाओग्गाणुपुवीणं देवगइसंजुत्तो । ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-पंचसंठाण-पंचसंघडणाणं तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तो, अण्णगईहि बंधविरोहादो । णवरि समचउरससंठाणस्स तिगइसंजुत्तो, णिस्यगईए अभावादो । वेउब्धियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठिम्हि देवगइ-णिरयगइसंजुत्ता। सासणे देवगइसंजुत्तो । सादावेदणीय-इत्थि-पुरिस-हस्स-रदि-पसत्थविहाय पाया जाता है । परघात, उच्छ्वास, त्रस, वादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर निरन्तर बन्ध होता है । निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? क्योंकि, देवनारकियों और असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच व मनुष्यों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है,तथा परघात और उच्छ्वासके बन्धके विरोधी अपर्याप्तके भी बन्धका अभाव है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भी बन्ध सान्तर-निरन्तर होता है । निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? नहीं, क्योंकि, तेज व वायु कायिक मिथ्यादृष्टियों तथा सप्तम पृथिवीके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है। प्रत्यय सुगम है, क्योंकि, ओधप्रत्ययोंसे यहां कोई भेद नहीं है। तिर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतका तिर्यग्गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। मनुष्यायु, मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। देवायु, [देवगति ] और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वका देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संस्थान और पांच संहननका तिर्यंच व मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ उनके बन्धका विरोध है। विशेष इतना है कि समचतुरस्रसंस्थानका तीन गतियों से संयुक्त वन्ध होता है, क्योंक, नरकगतिके साथ उसके बन्धका अभाव है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें देवगति व नरकगतिसे संयुक्त, तथा सासादन गुणस्थानमें देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । सातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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