SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०४ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, २३१. जादि वे उव्त्रिय-तेजा- कम्मइयसरीर - समचउरससंठाण - वेउब्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस- फास - देवाणुपुव्वि-अगुरुवल हुअ उवघाद-परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस - बादर-पज्जत्त- पत्तेयसरीर-थिर-सुह-सुभगसुस्सर-आदेज्ज-जसकित्तिणिमिण- तित्थयरुच्चा गोद - पंचतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २३१ ॥ सुगमं । पमत्त अप्पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ २३२ ॥ उदयादो बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिज्जदि त्ति एत्थ विचारे। णत्थि एदासिं बंधवोच्छेदाभावादो उदइल्लाणमुदयवच्छेदाभावादो च । देवगइ देवगइपाओग्गाणुपुव्विवेउब्वियदुग-तित्थयराणं परोदओ बंधो, एदासिं बंधोदयाणमक्कमवुत्तिविरोहादो | णिद्दापयला-सादावेदणीय-चदुसंजलण - हस्स - रदि-भय- दुगुंछा - समचउरससंठाण - पसत्थविहाय गइसुस्सराणं सोदय - परोइओ बंधो, एदासिं पडिवक्खपयडणं पि उदयदंसणादो | अवसेसाणं पडणं सोदओ बंधो, एत्थ एदासिं पयडीणं धुवोदयत्तुवलंभादो । व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपचात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आंदेय, यशकीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २३९ ॥ यह सूत्र सुगम है । प्रमत्त और अप्रमत्त संयत बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २३२ ॥ उदयसे बन्ध पूर्व में या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार यहां नहीं है, क्योंकि, इनके बन्धव्युच्छेदका अभाव है, तथा उदय युक्त प्रकृतियोंके उदयव्युच्छेदका भी अभाव है । देवगति, देवगतिप्रायेोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकद्विक और तीर्थकर, इनका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इन प्रकृतियोंके बन्ध और उदयके एक साथ अस्तित्वका विरोध है । निद्रा, प्रचला, सातावेदनीय, चार संज्वलन, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका स्वादय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियों का भी उदय देखा जाता है । शेष प्रकृतियोंका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इन प्रकृतियोंका ध्रुव उदय पाया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy