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________________ ३, २३०. ] संजममग्गणाए बंधसामित्तं [ ३०३ दंसणा दो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो सोदओ, धुवोदयत्तादो । थिर-सुभाणं पमत्तसंजदम्मि वं सांत, पडिवक्खपयडिबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, तदभावादो | अवसेसाणं पयडीणं वो निरंतरो, एत्थ धुवबंधित्तादो | पच्चया सुगमा । सव्वासि पयडीणं बंधो देवगइसंजुत्तो । मला सामीओ | बंधद्वाणं बंधविणड्डाणं च सुगमं । धुवबंधीणं बंधो तिविहो । अवसेसाणं सादि-अद्भुवो । असादावेदणीय-अरदि-सोग- अथिर- अमुह-अजसकित्तीणमेगाणियाणं सांतरबंधीणमोचपच्चयाणं देवगइ संजुत्ताणं मणुससामियाणं बंधद्धाणविरहियाणं पमत्तसंजदम्मि वोच्छिण्णबंधाणं बंघेण सादि-अद्भुवाणं बंधो सोदओ परोदओ सोदर्य- परोदओ वेत्ति जाणिय परूवेदव्वो । आहारदुग तित्राणं पि जाणिय वत्तव्वं । परिहार सुद्धिसंजदेसु पंत्रणाणावरणीय छदंसणावरणीय-सादावेदणीय-चदु संजुल - पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय- दुगुंछा-देवगइ-पंचिंदिय प्रतिपक्ष प्रकृतियों का भी उदय देखा जाता है । शेष प्रकृतियोंका बन्ध स्वोदय होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं। स्थिर और शुभका बन्ध प्रमत्तसंयत गुणस्थान में सान्तर होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका वन्ध पाया जाता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, यहां वे ध्रुवबन्धी हैं । प्रत्यय सुगम हैं । सब प्रकृतियोंका बन्ध देवगतिसंयुक्त होता है । इनके बन्धके स्वामी मनुष्य हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध तीन प्रकारका होता है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि व अध्रुव होता है । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति, इन एकस्थानिक, सान्तर बन्धवाली, ओघ प्रत्ययोंसे युक्त, देवगतिसंयुक्त, मनुष्यस्वामिक, बन्धाध्वान से रहित, प्रमत्तसंयत गुणस्थानभावी बन्धव्युच्छेद से सहित, तथा बन्धकी अपेक्षा सादि व अध्रुव प्रकृतियोंका बन्ध स्वोदय, परोदय अथवा स्वोदय-परोदय है; इसकी जानकर प्ररूपणा करना चाहिये । आहारद्विक और तीर्थकर प्रकृति की भी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये । परिहारशुद्धिसंयतों में पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस १ अ आप्रत्योः ' सोदयो', काप्रती ' सोदओ ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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