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________________ ३, २३१.] संजममग्गणार बंथसामि [३०५ - सादावेदणीय-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जसकित्तीणं पमत्तसंजदाम्म बंधो सांतरो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो णिरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहिंतो विसेसाभावादो । णवरि इत्थिणवंसयवेदपच्चया णत्थि, अप्पसत्थवेदोदइल्लाणं परिहारसुद्धिसंजमाभावादो । आहारदुगपञ्चया वि णत्थि, परिहारसुद्धिसंजमेण आहारदुगोदयविरोहादो तित्थयरपादमूले ट्ठियाणं गयसंदेहाणं आणाकणिट्ठदासजमबहुलतादिआहारुट्ठवणकारणविरहिदाणमाहारसरीरोवादाणासंभवादो वा। देवगइसंजुत्तो बंधो, एत्थण्णगइबंधाभावादो । मणुसा सामी, अण्णत्थ संजमाभावादो। बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि, 'अबंधा णत्थि' त्ति सुत्तणिद्देसादो । धुवबंधीणं बंधो तिविहो, धुवाभावादो । अवसेसाणं सादि-अद्भुवो, अद्धवबंधित्तादो। __ असादावेदणीय-अरदि-सोग-अथिर-असुह-अजसकित्तिणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २३३ ॥ सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशकीर्तिका प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें सान्तर बन्ध होता है। ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्तके विना उनके बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे कोई भेद नहीं है। विशेष इतना है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेद प्रत्यय नहीं है, क्योंकि, अप्रशस्तवेदोदय युक्त जीवोंके परिहारशुद्धिसंयमका अभाव है। आहारकद्विक प्रत्यय भी नहीं है, क्योंकि, परिहारशुद्धिसंयमके साथ आहारकद्विककी उत्पत्तिका विरोध है; अथवा तीर्थकरके पादमूलमें स्थित, सन्देह रहित, तथा आज्ञाकनिष्ठता अर्थात् आप्तवचनमें सन्देहजनित शिथिलता और असंयमबहुलतादि रूप आहारशरीरकी उत्पत्तिके कारणोंसे रहित परिहारशुद्धिसंयतोंके आहारकशरीरकी उत्पत्ति असंभव है। देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, यहां अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है। मनुष्य स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियों में संयमका अभाव है। वन्धाध्वान सुगम है। बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि अबन्धक नहीं है' ऐसा सूत्र में कहा गया है। इनमें ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध तीन प्रकारका होता है, क्योंकि, उनके ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २३३ ॥ .. आ काप्रत्योः · मूलट्ठियाणं' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः 'बहुलावादि', 'का-मप्रयोः बहुलालादि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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