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________________ ३, १८८.] कसायमग्गणाए बंधसामित्तं [ २६९ अणियट्टी उवसमा खवा बंधा। अणियट्टिवादरद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १८७ ॥ एदस्स अत्थो वुच्चदे - बंधो पुवमुदओ पच्छा वोच्छिज्जदि, अणियट्टि-सुहुमसांपराइयचरिमसमयम्मि बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो। सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधुवलंभादो। णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो। अवगयपच्चओ, आपच्चएहिंतो अविसिट्ठपच्चयत्तादो। अगइसंजुत्तो, चउगइबंधाभावादो। मणुससामिओ', अण्णत्थ खवगुवसामगाणमभावादो । बंधद्धाणं णत्थि, सुत्ते अणुवदित्तादो । किमट्ठमणुवदिहँ ? दवट्ठियावलंबणादो । तिविहो बंधो, धुवबंधित्तादो । कसायाणुवादेण कोधकसाईसु पंचणाणावरणीय [ चउदंसणावरणीय-सादावेदणीय-] चदुसंजलण-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १८८ ॥ अनिवृत्तिकरण उपशमक व क्षपक बन्धक हैं । अनिवृत्तिकरणबादरकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १८७ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें क्रमसे वन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों ही प्रकारसे वन्ध पाया जाता है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उक्त प्रकृति ध्रुवबन्धी है। ओघप्रत्ययोंसे यहां कोई विशेषता न होनेसे उक्त प्रकृतिके बन्धके प्रत्यय अवगत हैं। अगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, यहां चारों गतियोंके बन्धका अभाव है। मनुष्य स्वामी है, क्योंकि, अन्य मतियों में क्षपक व उपशामकोका अभाव है। बन्धाध्वान है नहीं, क्योंकि, सूत्र में उसका उपदेश नहीं है। शंका-सूत्रमें बन्धाध्वानका उपदेश क्यों नहीं किया गया है ? समाधान-द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करनेसे सूत्र में उसका उपदेश नहीं किया गया है। तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वह ध्रुववन्धी प्रकृति है। कपायमार्गणानुसार क्रोधकषायी जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय ], चार संज्वलन, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥१८८ ॥ १ प्रतिषु · अवगयपच्चओघ ' इति पाठः । २ प्रतिषु — मणुसासामिओ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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