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________________ २९०] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, २१५. जाव पमत्तसंजदो त्ति बंधद्धाणं । पमत्तसंजदम्मि बंधवोच्छेदो । एदासिं बंधो सादि-अद्धवो । अपच्चक्खाणावरणचउक्क-मणुसगइ-ओरालियसरीर-अंगोवंग-वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडण-मणुसगइपाओग्माणुपुवीओ एक्कम्हि असंजदसम्मादिट्टिगुणट्ठाणे बझंति त्ति एदासिमेत्थ एगट्ठाणसण्णा । एत्थ अपच्चक्खाणचउक्क-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं बंधोदया समं वोच्छिण्णा, असंजदसम्मादिहिँ मोत्तूणुवरि' बंधुदयाणुवलंभादो । अवसेसाणं पयडीणमेत्थ खओवसमियणाणमग्गणाए बंधोवोच्छेदो चेव, उदयवोच्छेदो णस्थि, केवलणाणीसु वि उदयदंसणादो। अपच्चक्खाणावरणचउक्कस्स बंधो सोदय-परोदओ, अद्धवोदयत्तादो । मणुसगइदुगोरालियदुग-वज्जरिसहसंघडणाणं बंधो परोदओ, सम्मादिट्ठीसु एदासिं सोदएण बंधस्स विरोहादो। णिरंतरो बंधो, असंजदसम्मादिट्ठिम्हि एगसमएण बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा । णवरि मणुसगइदुगोरालियदुग-वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणाणमसंजदसम्मादिहिम्हि ओरालियकायजोग-ओरालियमिस्सकायजोगपञ्चया णत्थि, तिरिक्ख-मणुसअसंजदसम्मादिट्ठीसु एदासिं वंधाभावादो । अपच्चक्खाणचउक्कस्स देव-मणुसगइसंजुत्तो बंधो । अण्णासिं पयडीणं मणुस है । प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें बन्धव्युच्छेद होता है। इन प्रकृतियोंका बन्ध सादि और अध्रुव होता है। __ अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, ये प्रकृतियां एक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में बंधती हैं, अतएव इनकी यहां एकस्थान संज्ञा है। यहां अप्रत्याख्यान चतुष्क और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको छोड़कर उपरिम गुणस्थानों में इनका बन्ध और उदय नहीं पाया जाता । शेष प्रकृतियोंका यहां क्षायोपशमिक ज्ञानमार्गणामें बन्धव्युच्छेद ही है, उदयव्युच्छेद नहीं है; क्योंकि, केवलज्ञानियों में भी उनका उदय देखा जाता है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध खोदय-परोदय होता है, क्योंकि, वह अध्रुवोदयी है। मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक और वज्रर्षभसंहननका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों में इनके स्वोदयसे बन्धका विरोध है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें एक समयसे बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं। विशेषता इतनी है कि मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक और वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहननके असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औदारिक और औदारिकमिश्र काययोग प्रत्यय नहीं हैं, क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टियों में इनके बन्धका अभाव है। अप्रत्याख्यानचतुष्कका देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त, तथा अन्य प्रकृतियोंका मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध १ अप्रतौ · मोत्तूणुवरिट्ठाणं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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