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________________ १, २१५.] णाणमग्गणाए बंधसामित्तं [ २८९ सेसमोघं जाव तित्थयरे त्ति । णवरि असंजदसम्मादिटिप्पहुडि त्ति भाणिदव्वं ॥ २१५ ॥ एदस्स अत्थो जदि वि सुगमो तो वि सण्णाणपक्खवाएणाक्खित्तचित्तो दुम्मेहजणाणुग्गहट्टं च पुणरवि परवेमि - असादावेदणीयस्स पुव्वं बंधो वोच्छिण्णो । उदयवोच्छेदो णत्थि, केवलणाणीसु वि तदुदयदसणादो । एवमथिरासुहाणं पि वत्तव्वं । अरदि-सोगाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, पमत्तापुब्बेसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । अजसकित्तीए पुव्वमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिण्णो, पमत्तासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । असादावेदणीयअरदि-सोगाणं बंधो सोदय-परोदओ, अद्धवोदयत्तादो । अथिरासुहाणं सोदओ, धुवोदयत्तादो । अजसकित्तीए असंजदसम्मादिट्ठिम्हि बंधो सोदय-परोदओ । उवरि परोदओ चेव । एदासिं पयडीणं सव्वासिं पि बंधो सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमदंसणादो । पच्चया सुगमा । असंजदसम्मादिहिम्हि सव्वपयडीणं दुगइसंजुत्तो, उवरिमाणं देवगइसंजुत्तो बंधो। चउगइअसंजदसम्मादिट्ठी दुगइसंजदासजदा मणुसगइसजदा च सामी । असंजदसम्मादिटिप्पहुडि शेष प्ररूपणा तीर्थकर प्रकृति तक ओघके समान है । विशेषता केवल इतनी है कि 'असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर ' ऐसा कहना चाहिये ॥ २१५ ॥ इस सूत्रका अर्थ यद्यपि सुगम है तो भी सम्यग्ज्ञानके पक्षपातसे आक्षिप्तचित्त अर्थात् आकृष्ट होकर और दुर्बुद्धि जनोंके अनुग्रहार्थ फिरसे भी प्ररूपणा करते हैंअसातावेदनीयका पूर्व में बन्ध व्युच्छिन्न होता है । उदयव्युच्छेद उसका नहीं है, क्योंकि, केवलज्ञानियों में भी उसका उदय देखा जाता है । इसी प्रकार अस्थिर और अशुभके भी कहना चाहिये । अराति व शोकका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, प्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थानों में क्रमसे उनके बन्ध और उदयका व्यच्छेद पाया जाता है । अयशकीर्तिका पूर्वमें उदय और पश्चात् वन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, प्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमसे उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । असातावेदनीय, अरति और शोकका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी हैं । अस्थिर और अशुभका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं। अयशकीर्तिका बन्ध असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में खोदय-परोदय होता है । ऊपर उसका परोदय ही बन्ध होता है । इन सब ही प्रकृतियोंका बन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका बन्धविश्राम देखा जाता है। प्रत्यय सुगम है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सब प्रकृतियोंका दो गतियोंसे संयुक्त तथा उपरिम जीवोंके देवगतिसे संयक्त बन्ध होता है। चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि, दो गतियोंके संयतासंयत, और मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक बन्धाध्वान ७.बं. ३७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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