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________________ १९६] छक्खंडागमै अंधसामित्तविचओ [३, १३७. बंधो, सुहुमेइंदिएसु देवाणमुववादाभावादो णिरंतरबंधाभावा । सुहुमपुढविकाइयपज्जत्ताणमेवं चेव वत्तव्वं । णवीर पज्जत्तस्स सोदओ, अपज्जत्तस्स परोदओ बंधो । सुहुमपुढविकाइयअपज्जत्ताणमेवं चेव वत्तव्वं । णवरि अपज्जत्तस्स सोदओ, पज्जत्त-थीणगिद्धित्तिय-परघादुस्सासाणं परोदओ बंधो। सव्वआउकाइयाणं जहापच्चासण्णपुढविकाइयभंगो । णवरि आदावस्स परोदओ बंधो, पुढविकाइए मोत्तूण अण्णत्थ आदावस्सुदयाभावादो। पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सादासाद-मिच्छत्त--सोलसकसाय- णवणोकसायतिरिक्खाउ-मणुस्साउ-तिरिक्खगइ-मणुसगइ-पंचजादि-ओरालिय-तेजा--कम्मइयसरीर--छसंठाणओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-वण्णचउक्क-तिरिक्खगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-अगुरुवलहुवचउक्क-आदावुज्जोव-दोविहायगइ-तस-थावर-बादर-सुहुम पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-दुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्तिणिमिण-णीचुच्चागोद-पंचंतराइयपयडीओ ठविय वण'फदिकाइयाणं परूवणा कीरदेबंधोदयाणं पुवापुवकालगयवोच्छेदपरिक्खा णत्थि, बंधोदयाणमेत्थ वोच्छेदाभावादो । धन्ध होता है, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रियों में देवोंकी उत्पत्ति न होनेसे वहां निरन्तर बन्धका अभाव है। सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तोंकी इसी प्रकार ही प्ररूपणा करना चाहिये । विशेषता इतनी है कि पर्याप्तका स्वोदय और अपर्याप्तका परोदय वन्ध होता है। सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंकी भी इसी प्रकार ही प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि अपर्याप्तका स्वोदय और पर्याप्त, स्त्यानगृद्धित्रय, परघात व उच्छ्वासका परोदय बन्ध होता है। सब अप्कायिक जीवोंकी प्ररूपणा अपनी अपनी प्रत्यासत्तिके अनुसार प्रथिवीकायिकोंके समान है। विशेषता यह है कि आतापका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, पृथिवीकायिकोको छोड़कर अन्यत्र आताप कर्मका उदय नहीं होता। पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यगायु, मनुष्यायु, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, पांच जातियां औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, वर्णादिक चार, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदिक चार, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, वादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक व साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंको स्थापित कर वनस्पतिकायिकोंकी प्ररूपणा करते हैं- बन्ध और उदयके पूर्व व अपूर्व कालगत व्युच्छेदकी परीक्षा नहीं है, क्योंकि, यहां वन्ध और उदयके व्युच्छेदका अभाव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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