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________________ जाता? ५० ४ षट्खंडागमकी प्रस्तावना पृष्ठ पं. अशुद्ध যুৎ ११ जिरयगइपाओग्गाणुपुग्वि णिरयगई-णिरयगइपाओग्गाणुपुब्वि , २६ नारकायु और नारकायु, नरकगति और २ ७ धुवबंधो। धुवबंधो , १७-२१ सर्व काल... क्यों नहीं पाया शंका-सर्व काल.........औदारिकशरीरका ध्रुव बन्ध और अनादिक बन्ध भी क्यों नहीं पाया जाता? " २३ अनादि रूपसे ध्रुव बन्धका अनादि एवं ध्रुव बन्धका बंधा ॥ २० ॥ बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा॥२०॥ १५ बन्धक हैं !॥ २० ॥ बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २० ॥ दुविहाभावादो धुवियाभावादो दो प्रकारके बन्धका ध्रुव बन्धका xxx २ प्रतिषु दुविहाभावादो इति पाठः । गयपच्चओ सगपच्चओ' गतप्रत्यय है, अर्थात् उसका प्रत्यय स्वनिमित्तक है, ऊपर बतला ही चुके हैं, अनुभागोदयसे अथवा अनन्तगुण- अनुभागोदयकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन हानिसे हीन xxx १ प्रतिषु ' गयपच्चओ' इति पाठः । क्योंकि, वहां क्योंकि, [ मिथ्यात्व और सासादन गुण स्थानमें ] अन्तर्दीपक अन्तदीपक ९१ १० लोकस्स लोगस्स अच्चणिज्जा वंदणिज्जा अच्चणिज्जा पूजणिज्जा वंदणिज्जा अर्चनीय, वंदनीय, अर्चनीय, पूजनीय, वंदनीय, ९२ १९ पांच मुष्टियों अर्थात् अंगोंसे पांच मृष्टियों अर्थात् पांच अंगों द्वारा भूमिस्पर्शसे ९९ ४ वंघो बंधो १०४ २२ द्वितीय दण्डकमें (!).. द्वितीय दण्डक अर्थात् निद्रानिद्रा आदि द्विस्थानिक प्रकृतियोंमें " २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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