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________________ ३, २१५. 1 णाणमग्गणाए बंधसामित्तं [ २९३ वोच्छिज्जदि । सादि-अद्भुवो, अद्धवबंधित्तादो । देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्वियसरीरअंगोवंग वण्ण-गंध-रस फास-देवगइपाओग्गाणुपुव्वी-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सासपसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिणणामाणं वुच्चदे-देवगइपाओग्गाणुपुवी-वे उब्वियसरीर-वे उब्वियसरीरंगोवंगाणं पुव्वमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिज्जदि, अपुवासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । अवसेसतेवीसपयडीणं एत्थुदयवोच्छेदो पत्थि, बंधवोच्छेदो चेव; केवलणाणीसु उदयवोच्छेदुवलंभादो । देवगइ-वेउव्वियदुगाणं सव्वगुणट्ठाणेसु परोदओ बंधो, एदासिमुदयबंधाणमक्कमेण वुत्तिविरोहाद।। पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-तस-बादरपज्जत्त-थिर-सुभ-णिमिणाणं सोदओ बंधो । समचउरससंठाण-उवघाद-परघाद-उस्सास-पत्तेयसरीराणमसंजदसम्मादिद्विम्हि सोदय-परोदओ बंधो। उरिमेसु गुणट्ठाणेसु सोदओ चेव, तेसिमपज्जत्तद्धाए अभावादो । णवरि समच उरसठाणस्स सव्वगुणहाणेसु सोदय-परोदओ बंधो । पसत्थविहायगइ-सुस्सराणं सव्वगुणट्ठाणेसु सोदय-परोदओ बंधा । सुभग-आदज्जाणं व्युच्छिन्न होता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है। देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगात, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण नामकमौकी प्ररूपणा करते हैं-देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अपूर्वकरण और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमे क्रमशः उनके बन्ध व व्युच्छेद पाया जाता है । शेष तेईस प्रकृतियोंका यहां उदयव्युच्छेद नहीं है, केवल बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, केवलज्ञानियों में उनका उदयव्युच्छेद पाया जाता है। देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका सब गुणस्थानों में परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनके उदय और बन्धके एक साथ रहनेका विरोध है । पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, शुभ और निर्माणका दय बन्ध होता है। समचतुरस्रसंस्थान, उपघात,परघात, उच्छवास और प्रत्येकशरीरका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय परोदय बन्ध होता है । उपरिम गुणस्थानों में उनका स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, उनके अपर्याप्तकालका अभाव है । विशेष इतना है कि समचतुरनसंस्थानका सब गुणस्थानोंमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका सब गुणस्थानोंमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । सुभग और आदेयका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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