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________________ १७२) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, १०४. चोद्दससदएक्केतालीसकोडाकोडी-पण्णारसलक्ख-अट्ठारससहस्स-अट्ठसय-सत्तकोडी'-अट्ठवंचासलक्ख-वंचवंचाससहस्स-अट्ठसय-एक्कहत्तरिउत्तरपच्चयपण्णभंगा' उप्पाएदव्वा १४४११५. १८८०७५८५५८७१। किं णिरयगइसंजुत्तं बझंति किं तिरिक्खगइसंजुत्तं किं मणुस्सगइसंजुत्तं [किं देवगइसंजुत्तं] इदि एत्थ पण्णारस पण्हभंगा उप्पाएदव्वा । अद्धाणभंगपमाणं सुगमं । किमप्पिदगुणट्ठाणस्सादिए मज्झे अंते बंधो वोच्छिज्जदि त्ति एक्केक्कम्हि गुणट्ठाणे तिण्णि तिण्णि भंगा उप्पाएयव्वा । सव्वबंधवोच्छेदपण्हसमासो बाएत्तालीस । किं सादिओ बंधो किमणादिओ किं धुवो किमद्धवो त्ति एत्थ पण्णारस पण्हभंगा उप्पाएयव्वा । मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु उवसमा खवा बंधा । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १०४ ॥ ___एदस्स अत्थो उच्चदे-पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचतराइयाणं पुव्वं बंधो नोकषाय और पन्द्रह योग, इन प्रत्ययोंको स्थापित कर चौदह सौ इकतालीस कोडाकोड़ी, पन्द्रह लाख, अठारह हजार, आठ सौ सात करोड़; अट्ठावन लाख, पचवन हजार, आठ सौ इकत्तर उत्तर प्रत्यय निमित्तक प्रश्नभंग उत्पन्न कराना चाहिये। १४४११५१८८०७५८५५८७१ । ये क्या नरकगतिसे संयुक्त बंधते हैं, क्या तिर्यग्गतिसे संयुक्त बंधते हैं, क्या मनुष्यगतिसे संयुक्त बंधते हैं, [या क्या देवगतिसे संयुक्त बंधते हैं, ] इस प्रकार यहां पन्द्रह प्रश्नभंग उत्पन्न कराना चाहिये। वन्धाध्वानका भंगप्रमाण सुगम है। क्या विवक्षित गुणस्थानके आदिमें, मध्यमें या अन्तमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, इस प्रकार एक एक गुणस्थानमें तीन तीन भंग उत्पन्न कराना चाहिये । बन्धव्युच्छेदके प्रश्नविषयक सर्व भंगोंका योग ब्यालीस होता है । क्या सादि, क्या अनादि, क्या ध्रुव और क्या अचव बन्ध होता है, इस प्रकार यहां पन्द्रह प्रश्नभंग उत्पन्न कराना चाहिये । मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंमें उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं। सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १०४ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच १ प्रतिषु सत्त-सत्तकोडी' इति पाठः। २ प्रतिषु ' पच्चया पण्णभंगा' इति पाठः । ३ अ-आप्रत्योः । किमप्पिद्गुण-'; काप्रती किमपिद्गुण.' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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