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३, १०३. पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु बंधसामित्तं
[१७१ मिच्छाइट्टी बंधओ किं सासणो बंधओ किं सम्मामिच्छाइट्ठी बंधओ किमसंजदसम्माइट्ठी बंधओ किं संजदासंजदो किं पमत्तो किमपमत्तो किमपुवो किमणियट्टी किं सुहुमसांपराइयओ किमुवसंतकसाओ किं खीणकसाओ किं सजोगिजिणो किमजोगिभडारओ बंधओ त्ति एवमेसो एगसंजोगो । संपधि एत्थ दुसंजोगादीहि अक्खसंचारं करिय सोलहसहस्स-तिण्णिसय-तेयासीदि-पण्णभंगा उप्पाएयव्वा । किं पुव्वमेदासिं बंधो वोच्छिज्जदि किमुदओ किं दो वि समं वोच्छिज्जंति एवमेत्थ तिण्णि भंगा । किं सोदएण बंधो किं परोदएण किं सोदय-परोदएण एत्थ वि तिण्णि भंगा। किं सांतरो बंधो किं णिरंतरो [किं] सांतर-णिरंतरो त्ति एत्थ वि तिण्णेव भंगा । एदासिं किं मिच्छत्तपच्चओ बंधो किमसंजमपच्चओ किं कसायपच्चओ किं जोगपच्चओ बंधो त्ति पण्णारस मूलपच्चयपणहभंगा' हवंति । एयंत-विवरीय-मूढ-संदेहअण्णाणमिच्छत्त-चक्खु-सोद-घाण-जिब्भा-पास-मण-पुढवीकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइय-वणप्फदिकाइय-तसकाइयासंजम-सोलसकसाय-णवणोकसाय-पण्णारसजोगपच्चए हविय
करते हैं । वह इस प्रकार है- क्या मिथ्यादृष्टि बन्धक है, क्या सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक है, क्या सम्यग्मिथ्यादृष्टि बन्धक है, क्या असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक है, क्या संयतासंयत, क्या प्रमत्त, क्या अप्रमत्त, क्या अपूर्वकरण, क्या अनिवृत्तिकरण, क्या सूक्ष्मसाम्परायिक, क्या उपशान्तकषाय, क्या क्षीणकषाय, क्या सयोगी जिन, या क्या अयोगी भट्टारक बन्धक हैं, इस प्रकार ये एकसंयोगी भंग है। अब यहां द्विसंयोगादिकोंके द्वारा अक्षसंचार करके सोलह हजार तीन सौ तेरासी प्रश्नभंग उत्पन्न कराना चाहिये । क्या पूर्वमें इनका बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्या उदय, या क्या दोनों एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं, इस प्रकार यहां तीन भंग होते हैं। क्या स्वोदयसे बन्ध होता है, क्या परोदयसे या क्या स्वोदय-परोदयसे, इस प्रकार यहां भी तीन भंग होते हैं। क्या सान्तर बन्ध होता है, क्या निरन्तर बन्ध होता है, या क्या सान्तर निरन्तर, इस प्रकार यहां भी तीन ही भंग होते हैं।
इनका बन्ध क्या मिथ्यात्वप्रत्यय है, क्या असंयमप्रत्यय है, क्या कषायप्रत्यय है, या क्या योगप्रत्यय बन्ध है, इस प्रकार पन्द्रह मूल-प्रत्यय-निमित्तक प्रश्नभंग होते हैं। एकान्त, विपरीत, मूढ़ [ विनय ], सन्देह और अज्ञान रूप पांच मिथ्यात्व; चक्षु, श्रोत्र, प्राण, जिह्वा, स्पर्श, मन, पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और उसकायिक, इनके निमित्तसे होनेवाले बारह असंयम; सोलह कषाय, नौ
१ अ-काप्रयोः 'पंचण्हभंगा'; आप्रतौ '-पंचण्हं भंगा' इति पाठः।
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