SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, २४. मिच्छाइडिप्पहडि जाव अणियट्टिबादरसांपराइयपविट्ठउवसमा • खवा बंधा । अणियट्टिबादरद्धाए सेसे सेसे संखेज्जाभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २४ ॥ 'मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टिबादरसांपराइयपविठ्ठउवसमा खवा बंधा' एदेण सुत्तावयवेण बंघद्धाणं गइगएण विणा गुणहाणगयबंधसामित्तं च वुत्तं । 'अणियट्टिबादरद्धाए सेसे सेसे संखेज्जाभाग गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि' एदेण सुत्तावयवेण बंधविणठ्ठठ्ठाणं परविदं । कोधसंजलणे विणढे जो अवसेसो अणियट्टिअद्धाए संखेज्जदिभागो तम्हि संखेज्जे खंडे कदे तत्थ बहुभागे गंतूण एयभागावसेसे माणसंजलणस्स बंधवोच्छेदो । पुणो तम्हि एगखंडे संखेज्जखंडे कदे तत्थ बहुखंडे गंतूण एगखंडावसेसे मायासंजलणबंधवोच्छेदो त्ति । कधमेदं णव्वदे ? 'सेसे सेसे संखेज्जे भागे गंतूणेत्ति ' विच्छाणिदेसादो । कसायपाहुडसुत्तेणेदं सुत्तं विरुज्झदि त्ति वुत्ते सच्चं विरुज्झइ, किंतु एयंतग्गहो एत्थ ण कायव्यो, इदमेव तं चेव मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरणबादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । अनिवृत्तिबादरकालके शेष शेपमें संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ २४ ॥ 'मिथ्याटिसे लेकर अनिवृत्तिकरणबादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं' इस सूत्रावयवसे वन्धाध्वान और गतिगत बन्धस्वामित्वके विना गुणस्थानगत बन्धस्वामित्व भी कहा गया है। 'अनिवृत्तिबादरकालके शेष शेषमें संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध ब्युच्छिन्न होता है' इस सूत्रावयव द्वारा वन्धविनष्टस्थानकी प्ररूपणा की गई है । संज्वलनक्रोधके विनष्ट होनेपर जो शेष अनिवृत्तिबादरकालका संख्यातवां भाग रहता है उसके संख्यात खण्ड करनेपर उनमें बहुभागोंको विताकर एक भाग शेष रहनेपर संज्वलनमानका बन्धव्युच्छेद होता है। पुनः एक खण्डके संख्यात खण्ड करनेपर उनमें बहुत खण्डोंको विताकर एक खण्ड शेप रहनेपर संज्वलनमायाका बन्धव्युच्छेद होता है। शंका—यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-'शेष शेषमें संख्यात बहुभाग जाकर' इस वीसा अर्थात दो बार निर्देशसे उक्त प्रकार दोनों प्रकृतियोंका व्युच्छेदकाल जाना जाता है। शंका-कषायप्राभृतके सूत्रसे तो यह सूत्र विरोधको प्राप्त होगा? समाधान-ऐसी आशंका होनेपर कहते हैं कि सचमुचमें कषायप्राभृतके सूत्रसे यह सूत्र विरुद्ध है, परन्तु यहां एकान्तग्रह नहीं करना चाहिये, क्योंकि, 'यही सत्य है' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy