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________________ ३, २४.] ओघेण माण-मायासंजलणाणं बंधसामित्तपरूवणा [५७ सच्चमिदि सुदकेवलीहि पच्चक्खणाणीहि वा विणा अवहारिज्जमाणे मिच्छत्तप्पसंगादो । कधं सुत्ताणं विरोहो ? ण, सुत्तोवसंहाराणमसयलसुदधारयाइरियपरतंताणं विरोहसंभवदंसणादो। उवसंहाराणं कधं पुण सुत्तत्तं जुज्जदे ? ण, अमियसायरजलस्स अलिंजर-घड-घडी-सरावुदंचणगयस्स वि अमियत्तुवलंभादो । संपहि एदेण सूइदत्थाणं' परूवणा कीरदे । तं जहा- एदासिं दोणं पयडीणं बंधोदया अक्कमेण वोच्छिज्जंति, उदए विण? बंधाणुवलंभादो। ण च उदयद्धाक्खएण उदयस्स विणासो एत्थ विवक्खिओ, संतोवसम-खएहि समुप्पण्णुदयाभावेण अहियारादो । एदासिं सोदय-परोदएहि बंधो, णिरंतरबंधीणं सांतरुदयाणं सोदएणेव बंधविरोहादो । णिरंतरबंधीओ, धुवबंधीहि सह पादादो । मिच्छाइटिप्पहुडि जे पच्चया मूलुत्तरणाणेगसमयभेयभिण्णा पुव्वं परूविदा तग्गुणविसिट्ठजीवा तेहि चेव पच्चएहि एदाओ पयडीओ बंधंति, पच्चयंतरा या ' वही सत्य है ऐसा श्रुतकेवलियों अथवा प्रत्यक्षशानियोंके विना निश्चय करनेपर मिथ्यात्वका प्रसंग होगा। शंका ----सूत्रों के विरोध कैसे हो सकता है ? समाधान-यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि, अल्प श्रुतके धारक आचार्योंके परतंत्र सूत्र व उपसंहारोंके विरोधकी सम्भावना देखी जाती है। शंका-उपसंहारोंके सूत्रपना कैसे उचित है ? समाधान-यह भी शंका ठीक नहीं, क्योंकि, आलिंजर (घटविशेष), घट, घटी, शराव व उदंचन आदिमें स्थित भी अमृतसागरके जलमें अमृतत्व पाया ही जाता है। अब इस सूत्रके द्वारा सूचित अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- इन दोनों प्रकृतियोंका बन्ध और उदय दोनों एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, इनके उदयके नष्ट होनेपर फिर बन्ध नहीं पाया जाता। और यहां उदयकालके क्षयसे होनेवाला उदयका विनाश विवक्षित नहीं हैं, क्योंकि, सत्वोपशम या सत्वक्षयसे उत्पन्न उदयाभावका अधिकार है। इन दोनों प्रकृतियोंका स्वोदय परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, निरन्तरबन्धी और सान्तर उदयवाली प्रकृतियोंके स्वोदयसे ही बन्ध होनेका विरोध है । ये निरन्तरबन्धी प्रकृतियां हैं, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंके साथ आती हैं। मिथ्यादृष्टिसे लेकर मूल, उत्तर व नाना एवं एक समय सम्बन्धी भेदोंसे भिन्न जो प्रत्यय पूर्वमें कहे जा चुके हैं, उन गुणस्थानोंसे विशिष्ट जीव उन्हीं प्रत्ययोंसे इन प्रकृतियों को बांधते हैं, क्योंकि, अन्य प्रत्ययोंका १ अप्रतौ ‘सुत्तोवसंघाराणा-', आ-काप्रयोः ‘सुत्तोवसंहाराणा-' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः ‘ सहदत्थाणं', काप्रतौ — सहिदत्थाणं ' इति पाठः । क. .८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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