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________________ ३, ९१.] आणदादिदेवेसु बंधसामित्तं . [ १४९ बंधाभावादो। · आणद जाव णवगेवेज्जविमाणवासियदेवेसु पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय-सादासाद- बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भयदुगुंछा-मणुसगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वजरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रसफास-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघाद-उस्सासपसत्थविहायगइ-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभगसुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ९० ॥ सुगममेदं । मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी बंधा। एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ ९१॥ एदेण सूइदत्थे भणिस्सामो--- मणुसगइ-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण छोड़कर निर्यग्गतिद्विकके बन्धका अभाव है। आनत कल्पसे लेकर नव ग्रैवेयक तक विमानवासी देवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कपाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ९० ॥ यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ ९१॥ इस सूत्रके द्वारा सूचित अर्थोंको कहते हैं-मनुष्यगति, औदारिकशरीरांगोपांग, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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