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________________ १५० ] छक्खडागमे बंधसामित्तविचओ [, st. मणुस्साणुपुव्वी अजसकित्तीणमुदयाभावादो सेसपयडीणं उदयवोच्छेदाभावादो च बंधोदयाणं पच्छाच्छोच्छेदपरिक्खा ण कीरदे । पंचणाणावरणीय चउदंसणावरणीय - पुरिसवेद- पंचिंदियजादि तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-तस - बादर - पज्जत्त-थिराथिर - सुभासुभ-सुभग-आदेज्ज-जसकित्तिणिमिणउच्चागोद-पंचं तरायइयाणं सोदणेव बंधो, धुवोदयत्तादो । णिद्दा-पयला-सादासाद-बार सकसायहस्स रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं सोदय-परोदएण बंधो, अद्भुवोदयत्तादो । समचउरससंठाणउवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-सुस्सरणामाओ मिच्छाइट्ठि - सासणसम्माइट्ठ-असंजदसम्मादिट्टिणो सोदय- परोदएण बंधंति । सम्मामिच्छाइट्टिणो सोदणेव बंधंति, सिमपज्जत्तकालाभावादो । मणुसगइ ओरालिय सरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग- वज्जरिसहसंघडणमणुस्साणुपुव्वी - अजसकित्तीणं परोदणेव बंधो, देवेसु एदासिं बंधोदयाणमक्कमेण उत्तिविरोहाद | पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय - बारसकसाय-भय- दुगुंछा - मणुसगइ पंचिंदियजादि वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी और अयशकीर्ति, इनका उदयाभाव होनेसे तथा शेष प्रकृतियों के उदयच्युच्छेदका अभाव होने से यहां बन्ध और उदयके पूर्व या पश्चात् व्युच्छेद होनेकी परीक्षा नहीं की जाती है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पुरुषवेद, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र, और पांच अन्तराय, इनका स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा, इनका स्वोदय- परोदय से बन्ध होता है, क्योंकि, ये अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । समचतुरस्रसंस्थान, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येकशरीर और सुस्वर नामकमको मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वोदय- परोदय से बांधते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव स्वोदयसे ही बांधते हैं, क्योंकि, उनके अपर्याप्तकालका अभाव है । मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी और अयशकीर्तिका परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, देवोंमें इन प्रकृतियोंके बन्ध और उदयके एक साथ अस्तित्वका विरोध है । पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणयि, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, १ अप्रतौ पच्काछेद ' इति पाठः । Jain Education International ' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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