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१४८ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचऔ
[३, ८९. बंधुवरमदंसणादो । मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्टिणो मणुसगइदुगं देवोपम्मि सांतर-णिरंतरं बंधति, सुक्कलेस्सिएसु मणुसगइदुगस्स णिरंतरबंधदंसणादो । एत्थ पुण सांतरं बंधंति, मणुसगइदुगणिरंतरबंधकारणाभावादो । ओरालियसरीरअंगोवंगं देवोधम्मि मिच्छाइट्ठी सांतरणिरंतरं बंधंति, सणक्कुमारादिसु णिरंतरबंधुवलंभादो । एत्थ पुण सांतरमेव, थावरबंधकाले अंगोवंगस्स बंधाभावादो त्ति ।
सणक्कुमारप्पहुडि जाव सदर-सहस्सारकप्पवासियदेवाणं पढमाए पुढवीए णेरइयाणं भंगो ॥ ८९॥
____णवरि एत्थ पुरिसवेदस्स सोदएण बंधो, अण्णवेदस्सुदयाभावादो । णउंसयवेदस्स पढमाए पुढवीए सोदएण बंधो, एत्य पुण परोदएण । पच्चएसु णउंसयवेदो इत्थिवेदेण सह अवणेदव्यो । सासणसम्माइट्ठिम्हि वे उब्वियमिस्स-कम्मइयपच्चया पक्खिविदव्वा, णेरइयसासणेसु तेसिमभावादो । सदार-सहस्सारदेवेसु मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो मणुसगइदुगं सांतर-णिरंतरं' बंधति, तत्थतणसुक्कलेस्सिएसु मणुसगइदुगं मोत्तूण तिरिक्खगइदुगस्स
एक समयसे बन्धविश्राम देखा जाता है । मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिद्विकको देवोत्रमें सान्तर निरन्तर वांधते हैं, क्योंकि, शुक्ललेश्यावालोंमें मनुष्यगतिद्विकका निरन्तर बन्ध देखा जाता है। परन्तु यहां सान्तर बांधते हैं, क्योंकि, मनुष्यगतिद्विकके निरन्तर बन्धके कारणोंका अभाव है। औदारिकशरीरांगोपांगको देवाघमें मिथ्यादृष्टि सान्तर-निरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, सनत्कुमारादि देवों में निरन्तर वन्ध पाया जाता है। परन्तु यहां सान्तर ही बांधते हैं, क्योंकि, स्थावरबन्धकालमें आंगोपांगका वन्ध नहीं होता।
सनत्कुमारसे लेकर शतार-सहस्रार तक कल्पवासी देवोंकी प्ररूपणा प्रथम पृथिवीके नारकियोंके समान है ॥ ८९ ॥
विशेष इतना है कि यहां पुरुषवेदका स्वोदयसे वन्ध होता है, क्योंकि, अन्य वेदके उदयका अभाव है। नपुंसकवेदका प्रथम पृथिवीमें स्वोदयसे बन्ध होता है। परन्तु यहां उसका परोदयसे वन्ध होता है। प्रत्ययोंमें नपुंसकवेदको स्त्रीवेदके साथ कम करना चाहिये। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें यहां वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको जोड़ना चाहिये, क्योंकि नारकी सासादनसम्यग्दृष्टियों में उनका अभाव है। शतारसहस्रारकल्पवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिद्विकको सान्तरनिरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, उन कल्पोंके शुक्ललेश्यावाले देवोंमें मनुष्यगतिद्विकको
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१ प्रतिषु ' सांतरं ' इति पाठः ।
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