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३,८८.)
सोहम्मीसाणदेवेसु बंधसामित्तं भावादो। पंचिंदिय-तसणामाओ मिच्छादिट्टिम्हि सांतरं बज्झइ, एइंदिय-थावरपडिवक्खपयडीण संभवादो। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुन्वीओ मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो सांतर बंधंति । ओरालियसरीरअंगोवंग मिच्छाइट्ठिणो सांतरं बंधंति । एसो भेदो संतो वि ण कहिदो। एवंविधं भेदं संतमकहंतस्स कधं सुत्तभावो ण फिट्टदे ? ण एस दोसो, देसामासियसुत्तेसु एवंविहभावाविरोहादो।
सोहम्मीसाणकप्पवासियदेवाणं देवभंगो ॥ ८८॥
एदस्स अत्थो-जधा देवोघम्मि सव्वपयडीओ परूविदाओ तहा एत्थ वि परुवेदवाओ। एदमप्पणासुत्तं देसामासिय, तेणेदेण सूइदत्थो उच्चदे- पंचिंदिय-तसणामाओ मिच्छाइट्ठी देवोघम्मि सांतर-णिरंतरं बंधंति, सणक्कुमारादिसु एइंदिय-थावरबंधाभावेण णिरतरबंधोवलंभादो। एत्थ पुण सांतरमेव बंधंति, पडिवक्खपयडिभावं' पडुच्च एगसमएण
और अस नामकर्म मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर बंधते हैं, क्योंकि, उक्त देवोंके इस गुणस्थानमें एकेन्द्रिय जाति और स्थावर रूप प्रतिपक्ष प्रकृतियोंकी सम्भावना है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि सान्तर बांधते हैं । औदारिकशरीरांगोपांगको मिथ्यादृष्टि सान्तर बांधते हैं । यद्यपि बध्यमान प्रकृतिभेदके साथ यह भेद भी है, तथापि देशामर्शक होनेसे वह सूत्र में नहीं कहा गया।
शंका-इस प्रकारके भेदके होनेपर भी उसे न कहनेवाले वाक्यका सूत्रत्व क्यों
नहीं नष्ट होता
समाधान--यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, देशामर्शक सूत्रोंमें इस प्रकारके स्वरूपका कोई विरोध नहीं है ।
सौधर्म व ईशान कल्पवासी देवोंकी प्ररूपणा सामान्य देवोंके समान है ॥ ८८ ॥
इस सूत्रका अर्थ-जिस प्रकार सामान्य देवोंमें सब प्रकृतियोंकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार यहां भी प्ररूपणा करना चाहिये । यह अर्पणासूत्र देशामर्शक है, इसलिये इसके द्वारा सूचित अर्थको कहते हैं- पंचेन्द्रिय जाति और त्रस नामकर्मको मिथ्यादृष्टि देव देवोघमें सान्तर-निरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, सनत्कुमारादि देवों में एकेन्द्रिय
और स्थावर प्रकृतियोंके बन्धका अभाव होनेसे निरन्तर बन्ध पाया जाता है। परन्तु यहां उन्हें सान्तर ही बांधते हैं, क्योंकि, प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके सद्भावकी अपेक्षा करके
३ प्रतिषु । -पडिभावं' इति पाठः।
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